मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

मातम की घडी और इंसाफ की बडी लडाई

ये मातम की भी घडी है और इंसाफ की एक बडी लडाई छेडने की भी. मातम इस देश में बचे-खुचे लोकतंत्र का गला घोंटने पर और लडाई - न पाए गए इंसाफ के लिए जो यहां के हर नागरिक का अधिकार है. छत्तीसगढ की निचली अदालत ने विख्यात मानवाधिकारवादी, जन-चिकित्सक और एक खूबसूरत इंसान डा. बिनायक सेन को भारतीय दंड संहिता की धारा 120-बी और धारा 124-ए, छत्तीसगढ विशेष जन सुरक्षा कानून की धारा 8(1),(2),(3) और (5) तथा गैर-कानूनी गतिविधि निरोधक कानून की धारा 39(2) के तहत राजद्रोह और राज्य के खिलाफ युद्ध छेडने की साज़िश करने के आरोप में 24 दिसम्बर के दिन उम्रकैद की सज़ा सुना दी. यहां कहने का अवकाश नहीं कि कैसे ये सारे कानून ही कानून की बुनियाद के खिलाफ हैं. डा. सेन को इन आरोपों में 24 मई, 2007 को गिरफ्तार किया गया और सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से पूरे दो साल साधारण कैदियों से भी कुछ मामलों में बदतर स्थितिओं में जेल में रहने के बाद, उन्हें ज़मानत दी गई. मुकादमा उनपर सितम्बर 2008 से चलना शुरु हुआ. सर्वोच्च न्यायालय ने यदि उन्हें ज़मानत देते हुए यह न कहा होता कि इस मुकदमे का निपटारा जनवरी 2011 तक कर दिया जाए, तो छत्तीसगढ सरकार की योजना थी कि मुकदमा दसियों साल चलता रहे और जेल में ही बिनायक सेन बगैर किसी सज़ा के दसियों साल काट दें. बहरहाल जब यह सज़िश नाकाम हुई और मजबूरन मुकदमें की जल्दी-जल्दी सुनवाई में सरकार को पेश होना पडा, तो उसने पूरा दम लगाकर उनके खिलाफ फर्ज़ी साक्ष्य जुटाने शुरु किए. डा. बिनायक पर आरोप था कि वे माओंवादी नेता नारायण सान्याल से जेल में 33 बार 26 मई से 30 जून, 2007 के बीच मिले. सुनवाई के दौरान साफ हुआ कि नारायण सान्याल के इलाज के सिलसिले में ये मुलाकातें जेल अधिकारियों की अनुमति से , जेलर की उपस्थिति में हुईं. डा. सेन पर मुख्य आरोप यह था कि उन्होंने नारायण सान्याल से चिट्ठियां लेकर उनके माओंवादी साथियों तक उन्हें पहुंचाने में मदद की. पुलिस ने कहा कि ये चिट्ठियां उसे पीयुष गुहा नामक एक कलकत्ता के व्यापारी से मिलीं जिसतक उसे डा. सेन ने पहुंचाया था. गुहा को पुलिस ने 6 मई,2007 को रायपुर में गिरफ्तार किया. गुहा ने अदालत में बताया कि वह 1 मई को गिरफ्तार हुए. बहरहाल ये पत्र कथित रूप से गुहा से ही मिले, इसकी तस्दीक महज एक आदमी अ़निल सिंह ने की जो कि एक कपडा व्यापारी है और पुलिस के गवाह के बतौर उसने कहा कि गुहा की गिरफ्तरी के समय वह मौजूद था. इन चिट्ठियों पर न कोई नाम है, न तारीख, न हस्ताक्षर , न ही इनमें लिखी किसी बात से डा. सेन से इनके सम्बंधों पर कोई प्रकाश पडता है. पुलिस आजतक भी गुहा और डा़ सेन के बीच किसी पत्र-व्यवहार, किसी फ़ोन-काल,किसी मुलाकात का कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाई. एक के बाद एक पुलिस के गवाह जिरह के दौरान टूटते गए. पुलिस ने डा.सेन के घर से मार्क्सवादी साहित्य और तमाम कम्यूनिस्ट पार्टियों के दस्तावेज़ , मानवाधिकार रिपोर्टें, सी.डी़ तथा उनके कम्प्यूटर से तमाम फाइलें बरामद कीं. इनमें से कोई चीज़ ऐसी न थी जो किसी भी सामान्य पढे लिखे, जागरूक आदमी को प्राप्त नहीं हो सकतीं. घबराहट में पुलिस ने भाकपा (माओंवादी) की केंद्रीय कमेटी का एक पत्र पेश किया जो उसके अनुसार डा. सेन के घर से मिला था. मज़े की बात है कि इस पत्र पर भी भेजने वाले के दस्तखत नहीं हैं. दूसरे, पुलिस ने इस पत्र का ज़िक्र उनके घर से प्राप्त वस्तुओं की लिस्ट में न तो चार्जशीट में किया था, न ”सर्च मेमों” में. घर से प्राप्त हर चीज़ पर पुलिस द्वारा डा. बिनायक के हस्ताक्षर लिए गए थे. लेकिन इस पत्र पर उनके दस्तखत भी नहीं हैं. ज़ाहिर है कि यह पत्र फर्ज़ी है. साक्ष्य के अभाव में पुलिस की बौखलाहट तब और हास्यास्पद हो उठी जब उसने पिछली 19 तारीख को डा.सेन की पत्नी इलिना सेन द्वारा वाल्टर फर्नांडीज़, पूर्व निदेशक, इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट ( आई.एस. आई.),को लिखे एक ई-मेल को पकिस्तानी आई.एस. आई. से जोडकर खुद को हंसी का पात्र बनाया. मुनव्वर राना का शेर याद आता है-
“बस इतनी बात पर उसने हमें बलवाई लिक्खा है
हमारे घर के बरतन पे आई.एस.आई लिक्खा है”
इस ई-मेल में लिखे एक जुमले ”चिम्पांज़ी इन द वाइटहाउस” की पुलिसिया व्याख्या में उसे कोडवर्ड बताया गया.( आखिर मेरे सहित तमाम लोग इतने दिनॉं से मानते ही रहे हैं कि ओंबामा से पहले वाइट हाउस में एक बडा चिंम्पांज़ी ही रहा करता था.) पुलिस की दयनीयता इस बात से भी ज़ाहिर है कि डा.सेन के घर से मिले एक दस्तावेज़ के आधार पर उन्हें शहरों में माओंवादी नेटवर्क फैलाने वाला बताया गया. यह दस्तावेज़ सर्वसुलभ है. यह दस्तावेज़ सुदीप चक्रवर्ती की पुस्तक, ”रेड सन- ट्रैवेल्स इन नक्सलाइट कंट्री” में परिशिष्ट के रूप में मौजूद है. कोई भी चाहे इसे देख सकता है. कुल मिलाकर अदालत में और बाहर भी पुलिस के एक एक झूठ का पर्दाफाश होता गया. लेकिन नतीजा क्या हुआ? अदालत में नतीजा वही हुआ जो आजकल आम बात है. भोपाल गैस कांड् पर अदालती फैसले को याद कीजिए. याद कीजिए अयोध्या पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को .क्या कारण हे कि बहुतेरे लोगों को तब बिलकुल आश्चर्य नहीं होता जब इस देश के सारे भ्रश्टाचारी, गुंडे, बदमाश , बलात्कारी टी.वी. पर यह कहते पाए जाते हैं कि वे न्यायपालिका का बहुत सम्मान करते हैं?
याद ये भी करना चाहिए कि भारतीय दंड संहिता में राजद्रोह की धाराएं कब की हैं. राजद्रोह की धारा 124 -ए जिसमें डा. सेन को दोषी करार दिया गया है 1870 में लाई गई जिसके तहत सरकार के खिलाफ ”घृणा फैलाना”, ” अवमानना करना” और ” असंतोष पैदा”करना राजद्रोह है. क्या ऐसी सरकारें घृणित नहीं है जिनके अधीन 80 फीसदी हिंदुस्तानी 20 रुपए रोज़ पर गुज़ारा करते हैं? क्या ऐसी सरकारें अवमानना के काबिल नहीं जिनके मंत्रिमंडल राडिया, टाटा, अम्बानी, वीर संघवी, बर्खा दत्त और प्रभु चावला की बातचीत से निर्धारित होते हैं ? क्या ऐसी सरकारों के प्रति हम और आप असंतोष नहीं रखते जो आदिवसियों के खिलाफ ”सलवा जुडूम” चलाती हैं, बहुराश्ट्रीय कम्पनियों और अमरीका के हाथ इस देश की सम्पदा को दुहे जाने का रास्ता प्रशस्त करती हैं. अगर यही राजद्रोह की परिभाशा है जिसे गोरे अंग्रेजों ने बनाया था और काले अंग्रेजों ने कायम रखा, तो हममे से कम ही ऐसे बचेंगे जो राजद्रोही न हों . याद रहे कि इसी धारा के तहत अंग्रेजों ने लम्बे समय तक बाल गंगाधर तिलक को कैद रखा.
डा. बिनायक और उनकी शरीके-हयात इलीना सेन देश के उच्चतम शिक्षा संस्थानॉं से पढकर आज के छत्तीसगढ में आदिवसियों के जीवन में रच बस गए. बिनायक ने पी.यू.सी.एल के सचिव के बतौर छत्तीसगढ सरकार को फर्ज़ी मुठभेड़ों पर बेनकाब किया, सलवा-जुडूम की ज़्यादतियों पर घेरा, उन्होंने सवाल उठाया कि जो इलाके नक्सल प्रभावित नहीं हैं, वहां क्यों इतनी गरीबी,बेकारी, कुपोषण और भुखमरी है?. एक बच्चों के डाक्टर को इससे बडी तक्लीफ क्या हो सकती है कि वह अपने सामने नौनिहालों को तडपकर मरते देखे? 
इस तक्लीफकुन बात के बीच एक रोचक बात यह है कि साक्ष्य न मिलने की हताशा में पुलिस ने डा.सेन के घर से कथित रूप से बरामद माओंवादियों की चिट्ठी में उन्हें ”कामरेड” संबोधित किए जाने पर कहा कि ”कामरेड उसी को कहा जाता है, जो माओंवादी होता है ”. तो आप में से जो भी कामरेड संबोधित किए जाते हों ( हों भले ही न), सावधान रहिए. कभी गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने कबीर के सौ पदों का अनुवाद किया था. कबीर की पंक्ति थी, ”निसिदिन खेलत रही सखियन संग”. गुरुदेव ने अनुवाद किया, ”Day and night, I played with my comrades' मुझे इंतज़ार है कि कामरेड शब्द के इस्तेमाल के लिए गुरुदेव या कबीर पर कब मुकदमा चलाया जाएगा?
अकारण नहीं है कि जिस छत्तीसगढ में कामरेड शंकर गुहा नियोगी के हत्यारे कानून के दायरे से महफूज़ रहे, उसी छत्तीसगढ में नियोगी के ही एक देशभक्त, मानवतावादी, प्यारे और निर्दोष चिकित्सक शिष्य को उम्र कैद दी गई है. 1948 में शंकर शैलेंद्र ने लिखा था,
“भगतसिंह ! इस बार न लेना काया भारतवासी की,
देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फाँसी की !
यदि जनता की बात करोगे, तुम गद्दार कहाओगे--
बंब संब की छोड़ो, भाशण दिया कि पकड़े जाओगे !
निकला है कानून नया, चुटकी बजते बँध जाओगे,
न्याय अदालत की मत पूछो, सीधे मुक्ति पाओगे,
कांग्रेस का हुक्म; जरूरत क्या वारंट तलाशी की ! “
ऊपर की पंक्तियों में ब़स कांग्रेस के साथ भाजपा और जोड़ लीजिए.
आश्चर्य है कि साक्ष्य होने पर भी कश्मीर में शोंपिया बलात्कार और हत्याकांड के दोषी, निर्दोष नौजवानॉं को आतंकवादी बताकर मार देने के दोषी सैनिक अधिकारी खुले घूम रहे हैं और अदालत उनका कुछ नहीं कर सकती क्योंकि वे ए.एफ.एस. पी.ए. नामक कानून से संरक्षित हैं, जबकि साक्ष्य न होने पर भी डा. बिनायक को उम्र कैद मिलती है.
- मित्रों मैं यही चाहता हूं कि जहां जिस किस्म से हो , जितनी दूर तक हो हम डा. बिनायक सेन जैसे मानवरत्न के लिए आवाज़ उठाएं ताकि इस देश में लोग उस दूसरी गुलामी से सचेत हों जिसके खिलाफ नई आज़ादी के एक योद्धा हैं डा. बिनायक सेन. 

सोमवार, 8 नवंबर 2010

सीत की मार


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शनिवार, 6 नवंबर 2010

कार्यस्थलो‍ पर यौन उत्पीडन पडेगा महँगा

कार्यस्थलो‍ पर यौन उत्पीडन पडेगा महँगा
अब कार्यस्थलों पर महिलाएँ सुरक्षित महसूस कर पाएंगी क्योंकि सरकार ने गुरुवार को उस विधेयक के प्रारूप को मंजूरी दे दी जिसमें महिलाओं का यौन उत्पीड़न रोकने के उपाय किए गए हैं. इस विधेयक के अनुसार कार्यस्थलों पर किसी भी तरह के शारीरिक संपर्क, उसके प्रयास या यौनाचार की पेशकश, अश्लील टिप्पणियां या अश्लील चित्र दिखाना अथवा अश्लील हावभाव प्रदर्शित करना  यौन उत्पीड़न मानी जाएगा.

इस विधेयक की परिभाषा को सुप्रीम कोर्ट में चले विशाखा बनाम राजस्थान सरकार केस के आधार पर तैयार किया गया है. यह विधेयक जब कानून की शक्ल ले लेगा तब यह सरकारी, सार्वजनिक, निजी क्षेत्रों के संगठित और गैर-संगठित क्षेत्रों पर लागू होगा. इस कानून के तहत दोषित साबित होने पर नियोक्ता को 50 हजार रुपये तक का जुर्माना भरना पड़ सकता है. 

इस कानून का लाभ दफ्तर में काम करने वाली महिलाओं, उपभोक्ता, प्रशिक्षु, दैनिक या अस्थायी कर्मचारी, कॉलेज व विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली छात्राओं और अस्पताल जाने वाली महिला मरीजों को मिलेगा. परंतु घरों मे‍ काम करने वाली नौकरानियां इसके दायरे में नहीं आएंगी.

कहाँ की जा सकेगी शिकायत?

यदि कोई महिला स्वयं को यौन उत्पीडन का शिकार हुआ पाएगी तो वह इसकी शिकायत अपने कार्यस्थल पर बने एक आंतरिक शिकायत समिति से कर सकेगी. सभी कार्यस्थलो‍ पर ऐसी समिति का बनाना अनिवार्य होगा. परंतु यदि कार्यालय छोटा है तथा जहां कर्मचारियों की संख्या कम है तो महिलाएं उप जिला स्तर पर स्थापित स्थानीय शिकायत समिति से शिकायत कर पाएन्गी. 

इसके अलावा शिकायत करने वाली महिला की सुरक्षा पर भी ध्यान दिया गया है. धमकी और दबाव से बचने के लिए पीड़ित महिला तबादले की मांग कर सकती है अथवा छुट्टी पर जा सकती है. जांच समिति को 90 दिन के भीतर जांच पूरी करनी होगी और जांच पूरी होने के बाद नियोक्ता या जिलाधिकारी को समिति की सिफारिशों को 60 दिन में लागू करना होगा


SATURDAY, 06 NOVEMBER 2010 0 तरकश ब्यूरो 

सोमवार, 18 अक्तूबर 2010

लिंग समानता बनाम नारी-सशक्तीकरण


ये पोस्ट मेरे शोध कार्य का अंश है. मैं इस विषय पर शोध कर रही हूँ कि किस प्रकार हमारे धर्मशास्त्रों ने नारी-सशक्तीकरण पर प्रभाव डाला है? क्या ये प्रभाव मात्र नकारात्मक है अथवा सकारात्मक भी है? जहाँ एक ओर हम मनुस्मृति के "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते" वाला श्लोक उद्धृत करके ये बताने का प्रयास करते हैं कि हमारे देश में प्राचीनकाल में नारी की पूजा की जाती थी, वहीं कई दूसरे ऐसे श्लोक हैं (न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हति आदि) जिन्हें नारी के विरुद्ध उद्धृत किया जाता है और ये माना जाता है कि इस तरह के श्लोकों ने पुरुषों को बढ़ावा दिया कि वे औरतों को अपने अधीन बनाए रखने को मान्य ठहरा सकें. मेरे शोध का उद्देश्य यह पता लगाना है कि इन धर्मशास्त्रीय प्रावधानों का नारी की स्थिति पर किस प्रकार का प्रभाव अधिक पड़ा है.
आज से कुछ दशक पहले हमारा समाज इन धर्मशास्त्रों से बहुत अधिक प्रभावित था. अनपढ़ व्यक्ति भी "अरे हमारे वेद-पुराण में लिखा है" कहकर अपनी बात सिद्ध करने का प्रयास करते थे, चाहे उन्होंने कभी उनकी सूरत तक न देखी हो. आज स्थिति उससे बहुत भिन्न है, कम से कम प्रबुद्ध और पढ़ा-लिखा वर्ग तो सदियों पहले लिखे इन ग्रंथों की बात नहीं ही करता है. पर फिर भी कुछ लोग हैं, जो आज भी औरतों के सशक्तीकरण की दिशा इन शास्त्रों के आधार पर तय करना चाहते हैं... अथवा अनेक उद्धरण देकर यह सिद्ध करना चाहते हैं कि 'हमारा धर्म अधिक श्रेष्ठ है' और 'हमारे धर्म में तो औरतें कभी निचले दर्जे पर समझी ही नहीं गयी' और मजे की बात यह कि यही लोग अपने घर की औरतों को घर में रखने के लिए भी शास्त्रों से उदाहरण खोज लाते हैं. यानी चित भी मेरी पट भी मेरी.मेरा कार्य इससे थोड़ा अलग हटकर है. मैं इन शास्त्रों द्वारा न ये सिद्ध करने की कोशिश कर रही हूँ कि प्राचीन भारत में नारी की स्थिति सर्वोच्च थी और उसके साथ कोई भेदभाव होता ही नहीं था (क्योंकि ये सच नहीं है गार्गी-याज्ञवल्क्य संवाद इसका उदाहरण है) और न ये सिद्ध करने की कोशिश कर रही हूँ कि नारी की वर्तमान स्थिति के लिए पूरी तरह शास्त्र उत्तरदायी हैं... मैं यह जानने का प्रयास कर रही हूँ कि धर्मशास्त्रों के प्रावधान वर्तमान में हमारे समाज में कहाँ तक प्रवेश कर पाए हैं और पुनर्जागरण काल से लेकर आज तक नारी-सशक्तीकरण पर कितना और किस प्रकार का प्रभाव डाल पाए हैं?
वस्तुतः धर्मशास्त्रीय प्रावधानों ने नारी की स्थिति मुख्यतः उसके सशक्तीकरण की प्रक्रिया पर क्या प्रभाव डाला है... इसे जानने से पूर्व सशक्तीकरण को जानना आवश्यक है. सशक्तीकरण को अलग-अलग विद्वानों ने भिन्न-भिन्न रूप में परिभाषित किया है. कैम्ब्रिज शब्दकोष इसे प्राधिकृत करने के रूप में परिभाषित करता है. लोगों के सम्बन्ध में इसका अर्हत होता है उनका अपने जीवन पर नियंत्रण. सशक्तीकरण की बात समाज के कमजोर वर्ग के विषय में की जाती है, जिनमें गरीब, महिलायें, समाज के अन्य दलित और पिछड़े वर्ग के लोग सम्मिलित हैं. औरतों को सशक्त बनाने का अर्थ है 'संसाधनों पर नियंत्रण स्थापित करना और उसे बनाए रखना ताकि वे अपने जीवन के विषय में निर्णय ले सकें या दूसरों द्वारा स्वयं के विषय में लिए गए निर्णयों को प्रभावित कर सकें.' एक व्यक्ति सशक्त तभी कहा जा सकता है, जब उसका समाज के एक बड़े हिस्से के संसाधन शक्ति पर स्वामित्व होता है. वह संसाधन कई रूपों में हो सकता है जैसे- निजी संपत्ति, शिक्षा, सूचना, ज्ञान, सामाजिक प्रतिष्ठा, पद, नेतृत्व तथा प्रभाव आदि. स्वाभाविक है कि जो अशक्त है उसे ही सशक्त करने की आवश्यकता है और यह एक तथ्य है कि हमारे समाज में औरतें अब भी बहुत पिछड़ी हैं... ये बात हमारे नीति-निर्माताओं, प्रबुद्ध विचारकों, अर्थशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों के द्वारा मान ली गयी है. कुछ लोग चाहे जितना कहें कि औरतें अब तो काफी सशक्त हो गयी हैं या फिर यदि औरतें सताई जाती हैं तो पुरुष भी तो कहीं-कहीं शोषित हैं.
विभिन्न विचारकों द्वारा ये मान लिया गया है कि भारत में औरतों की दशा अभी बहुत पिछड़ी है... इसीलिये विगत कुछ दशकों से प्रत्येक स्तर पर नारी-सशक्तीकरण के प्रयास किये जा रहे हैं. इन प्रयासों के असफल होने या अपने लक्ष्य को न प्राप्त कर पाने का बहुत बड़ा कारण अशिक्षा है, परन्तु उससे भी बड़ा कारण समाज की पिछड़ी मानसिकता है. जब हम आज भी इस बात को स्वीकार नहीं कर पाए हैं कि हमारे समाज में लैंगिक भेदभाव है, तो उसे दूर करने और नारी को सशक्त बनाने की बात ही कहाँ उठती है? हम अब भी नारी के साथ हो रही हिंसा के लिए सामाजिक संरचना को दोष न देकर व्यक्ति की मानसिक कुवृत्तियों को दोषी ठहराने लगते हैं...हम में से अब भी कुछ लोग औरतों को पिछड़ा नहीं मानते बल्कि कुछ गिनी-चनी औरतों का उदाहरण देकर ये सिद्ध करने लगते हैं कि औरतें कहाँ से कहाँ पहुँच रही हैं...?
हाँ, कुछ औरतें पहुँच गयी हैं अपने गंतव्य तक संघर्ष करते-करते, पर अब भी हमारे देश की अधिकांश महिलायें आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से भी पिछड़ी हैं. उन्हें आगे लाने की ज़रूरत है.



छेड़छाड़ की समस्या के कारणों की पड़ताल


छेड़छाड़ की समस्या हमारे समाज की एक गम्भीर समस्या है. इसके बारे में बातें बहुत होती हैं, परन्तु इसके कारणों को लेकर गम्भीर बहस नहीं हुयी है. अक्सर इसको लेकर महिलाएँ पुरुषों पर दोषारोपण करती रहती हैं और पुरुष सफाई देते रहते हैं, पर मेरे विचार से बात इससे आगे बढ़नी चाहिये.
मैंने पिछले कुछ दिनों ब्लॉगजगत्‌ के कुछ लेखों को पढ़कर और कुछ अपने अनुभवों के आधार पर निष्कर्ष निकाला है कि लोगों के अनुसार छेड़छाड़ की समस्या के कारणों की पड़ताल तीन दृष्टिकोणों से की जा सकती है-
जैविक दृष्टिकोण- जिसके अनुसार पुरुषों की जैविक बनावट ऐसी होती है कि उसमें स्वाभाविक रूप से आक्रामकता होती है. पुरुषों के कुछ जीन्स और कुछ हार्मोन्स (टेस्टोस्टेरोन) होते हैं, जिसके फलस्वरूप वह यौन-क्रिया में ऐक्टिव पार्टनर होता है. यही प्रवृत्ति अनुकूल माहौल पाकर कभी-कभी हावी हो जाती है और छेड़छाड़ में परिणत होती है.
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण - इसके अनुसार छेड़छाड़ की समस्या कुछ कुत्सित मानसिकता वाले पुरुषों से सम्बन्धित है. सामान्य लोगों से इसका कुछ लेना-देना नहीं है.
समाजवैज्ञानिक दृष्टिकोण-इसके अनुसार इस समस्या की जड़ें कहीं गहरे हमारी समाजीकरण की प्रक्रिया में निहित है. इसकी व्याख्या आगे की जायेगी.
यदि हम इस समस्या को सिर्फ़ जैविक दृष्टि से देखें तो एक निराशाजनक तस्वीर सामने आती है, जिसके अनुसार पुरुषों की श्रेष्ठता की प्रवृत्ति युगों-युगों से ऐसी ही रही है और सभ्यता के विकास के बावजूद कम नहीं हुयी है. इस दृष्टिकोण के अनुसार तो इस समस्या का कोई समाधान ही नहीं हो सकता. लेकिन इस समस्या को जैविक मानने के मार्ग में एक बाधा है. यह समस्या भारत में अलग-अलग क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न ढँग से पायी जाती है. जहाँ उत्तर भारत में छेड़छाड़ की घटनाएँ अधिक होती हैं, वहीं दक्षिण भारत में नाममात्र की. इसके अलावा सभी पुरुष इस कुत्सित कर्म में लिप्त नहीं होते. यदि यह समस्या केवल जैविक होती तो सभी जगहों पर और सभी पुरुषों पर ये बात लागू होती. यही बात मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखने पर सामने आती है. लगभग दो-तिहाई पुरुष छेड़छाड़ करते हैं, तो क्या वे सभी मानसिक रूप से "एबनॉर्मल" होते हैं?
नारीवादी छेड़छाड़ की समस्या को सामाजिक मानते हैं. चूँकि समाजीकरण के कारण पुरुषों में इस प्रकार की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है कि वे महिलाओं से छेड़छाड़ करें, इसलिये समाजीकरण के द्वारा ही इस समस्या का समाधान हो सकता है. अर्थात्‌ कुछ बातों का ध्यान रखकर, पालन-पोषण में सावधानी बरतकर हम अपने बेटों को "जेंडर सेंसटाइज़" कर सकते हैं. यहाँ पर यह प्रश्न उठ सकता है कि क्या कोई अपने बेटे से यह कहता है कि छेड़छाड़ करो? तो इसका जवाब है-नहीं. यहाँ इस समस्या का जैविक पहलू सामने आता है. हाँ, यह सच है कि पुरुष ऐक्टिव पार्टनर होता है और इस कारण उसमें कुछ आक्रामक गुण होते हैं, पर स्त्री-पुरुष सिर्फ़ नर-मादा नहीं हैं और न ही छेड़छाड़ का यौन-क्रिया से कोई सम्बन्ध है. मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. अतः समाज में रहने के लिये जिस प्रकार सभ्यता की आवश्यकता होती है, वह होनी चाहिये. हम लड़कों के पालन-पोषण के समय उसकी आक्रामक प्रवृत्तियों को रचनात्मक मोड़ देने के स्थान पर उसको यह एहसास दिलाते हैं कि वह स्त्रियों से श्रेष्ठ है. यह पूरी प्रक्रिया अनजाने में होती है और अनजाने में ही हम अपने बच्चों में लिंग-भेद व्याप्त कर देते हैं.
हमें यह समझना चाहिये कि छेड़छाड़ की समस्या का स्त्री-पुरुष के स्वाभाविक आकर्षण या यौन-सम्बन्धों से कोई सम्बन्ध नहीं है. छेड़छाड़ के द्वारा पुरुष अपनी श्रेष्ठता को स्त्रियों पर स्थापित करना चाहता है और यह उस दम्भ की अभिव्यक्ति है जो समाजीकरण की क्रिया द्वारा उसमें धीरे-धीरे भर जाती है. ….
 इसके पहले मैं स्पष्ट कर दूँ कि छेड़छाड़ से मेरा मतलब उस घटिया हरकत से है, जिसे यौन-शोषण की श्रेणी में रखा जाता है. यह वो हल्की-फुल्की छींटाकशी नहीं है, जो विपरीतलिंगियों में स्वाभाविक है, क्योंकि वह कोई समस्या नहीं है. कोई भी इस प्रकार की हरकत समस्या तब बनती है, जब वह समाज के किसी एक वर्ग को कष्ट या हानि पहुँचाने लगती है.
समस्या यह है कि हम यौनशोषण को तो बलात्कार से तात्पर्यित करने लगते हैं और छेड़छाड़ को हल्की-फुल्की छींटाकशी समझ लेते हैं, जबकि छेड़छाड़ की समस्या भी यौन-शोषण की श्रेणी में आती है. मैं अपनी बात थोड़ी शिष्टता से कहने के लिये छेड़छाड़ शब्द का प्रयोग कर रही हूँ. किसी को अश्लील फब्तियाँ कसना, अश्लील इशारे करना, छूने की कोशिश करना आदि इसके अन्तर्गत आते हैं. लिस्ट तो बहुत लम्बी है. पर यहाँ चर्चा का विषय दूसरा है. मेरा कहना है कि ये हरकतें भी गम्भीर होती हैं. यदि इन्हें रोका नहीं जाता, तो यही बलात्कार में भी परिणत हो सकती हैं.
पिछली पोस्ट में छेड़छाड़ की समस्या के कारणों को खोजने के पीछे मेरा उद्देश्य था, इसे जैविक निर्धारणवाद के सिद्धान्त से अलग करना, क्योंकि जैविक निर्धारणवाद किसी भी समस्या के समाधान की संभावनाओं को सीमित कर देता है. मेरा कहना था कि यह समस्या जैविक और मनोवैज्ञानिक से कहीं अधिक सामाजिक है. समाजीकरण की प्रक्रिया में हम जाने-अनजाने ही लड़कों में ऐसी बातों को बढ़ावा दे देते हैं कि वे छेड़छाड़ को स्वाभाविक समझने लगते हैं. इसी प्रकार हम लड़कियों को इतना दब्बू बना देते हैं कि वे इन हरकतों का विरोध करने के बजाय डरती हैं और शर्मिन्दा होती हैं. चूँकि इस समस्या के मूल में समाजीकरण की प्रक्रिया है, अतः इसका समाधान भी उसी में ढूँढ़ा जा सकता है. वैसे तो सरकारी स्तर पर अनेक कानून और सामाजिक और नैतिक दबाव इसके समाधान में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं, पर इसे रोकने का सबसे अच्छा और प्राथमिक उपाय अपने बच्चों के पालन-पोषण में सावधानी बरतना है. भले ही यह एक दीर्घकालीन समाधान है, पर कालान्तर में इससे एक अच्छी पीढ़ी तैयार हो सकती है.
मैं यहाँ लड़कियों के प्रति रखी जाने वाली सावधानियों की चर्चा कर रही हूँ, जिससे उन्हें ऐसी हरकतों से बचाया जा सके-
-लड़कियों में आत्मविश्वास जगायें. घर का माहौल इतना खुला हो कि वे अपने साथ हुई किसी भी ऐसी घटना के बारे में बेहिचक बता सकें.
-लड़की के साथ ऐसी कोई घटना होने पर उसे कभी दोष न दें, नहीं तो वह अगली बार आपको बताने में हिचकेगी और जाने-अनजाने बड़ी दुर्घटना का शिकार हो सकती है.
-लड़कियों को आत्मरक्षा की ट्रेनिंग ज़रूर दिलवाएँ. इससे उनमें आत्मविश्वास जगेगा और वो किसी दुर्घटना के समय घबराने के स्थान पर साहस से काम लेंगी.
-लड़कियों को कुछ बातें समझाये. जैसे कि-
-वे रात में आने-जाने के लिये सुनसान रास्ते के बजाय भीड़भाड़ वाला रास्ता चुनें.
-भरसक किसी दोस्त के साथ ही जायें, अकेले नहीं.
-किसी दोस्त पर आँख मूंदकर भरोसा न करें.
-अपने मोबाइल फोन में फ़ास्ट डायलिंग सुविधा का उपयोग करें और सबसे पहले घर का नम्बर रखें.
ऐसी एक दो नहीं अनेक बातें हैं. पर सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात बेटियों को आत्मविश्वासी बनाना है और अति आत्मविश्वास से बचाना है. उपर्युक्त बातें एक साथ न बताने लग जायें, नहीं तो वो या तो चिढ़ जायेगी या डर जायेगी. आप अपनी ओर से भी कुछ सुझाव दे सकते हैं. अगली कड़ी में मैं लड़कों के पालन-पोषण में ध्यान रखने वाली बातों की चर्चा करूँगी.
हम प्रायः इस ग़लतफ़हमी में रहते हैं कि हमारे घर-परिवार के पुरुष सदस्य छेड़छाड़ कर ही नहीं सकते और जब ऐसा हो जाता है, तो हम या फिर आश्चर्य करते हैं या उनके अपराध को छिपाने की कोशिश. ऐसा बहुत से केसों में देखने को मिला है कि अपराधी के घर वाले उल्टा पीड़ित पर ही आरोप लगाने लगते हैं.

अभी कुछ दिनों पहले का चर्चित केस है. पूर्वी यू.पी. के एक लड़के ने गोवा में एक नौवर्षीय रूसी लड़की के साथ यौन-दुर्व्यवहार किया. जब पुलिस लड़के के घर पूछताछ करने पहुँची, तो उसके घर वाले आश्चर्य में पड़ गये. उसकी बूढ़ी माँ ने कहा,"पता नहीं ऐसा कैसे हुआ? लड़का तो ऐसा नहीं था. हमने तो देखा नहीं. पता नहीं सच क्या है?" अब इसमें ग़लती इस माँ की नहीं है. उसने तो अपने बेटे को ये सब सिखाया नहीं.

कोई भी अपने बेटों को ग़लत शिक्षा नहीं देता, पर अगर कुछ बातों का ध्यान रखा जाये, तो ऐसी दुर्घटना से बचा जा सकता है. मेरा ये कहना बिल्कुल नहीं है कि हम अपने घर के पुरुष सदस्यों को शक की निगाह से देखें और उनकी हर गतिविधि पर नज़र रखें. ऐसा करना न व्यावहारिक होगा और न ही उचित. और परिवार की शान्ति भंग होगी सो अलग से. पर विशेषकर किशोरावस्था के लड़कों के पालन-पोषण में सावधानी बहुत ज़रूरी है. मैं अपने अनुभवों और अध्ययन के आधार पर कुछ सुझाव दे रही हूँ, शेष...जो भी लोग इस मुद्दे को लेकर संवेदनशील हैं और कुछ सुझाव देना चाहते हैं, वे दे सकते हैं---
---अपने बेटों को बचपन से ही नारी का सम्मान करना सिखायें, इसलिये नहीं कि वह नारी होने के कारण पूज्य है, बल्कि इसलिये कि वह एक इन्सान है और उसे पूरी गरिमा के साथ जीने का हक़ है.
---उन्हें यह बतायें कि उनकी बहन का भी परिवार में वही स्थान है, जो उनका है, न उससे ऊँचा और न नीचा.
---उसे अपनी बहन का बॉडीगार्ड न बनायें. ऐसा करने पर लड़के अपने को श्रेष्ठतर समझने लगते हैं.
---अपने किशोरवय बेटे की गतिविधियों पर ध्यान दें, परन्तु अनावश्यक टोकाटाकी न करें.
---उन्हें उनकी महिलामित्रों को लेकर कभी भी चिढ़ायें नहीं, एक स्वस्थ मित्रता का अधिकार सभी को है.
---किशोरावस्था के लड़कों को यौनशिक्षा देना बहुत ज़रूरी है. मेरे ख्याल से परिवार इसके लिये बेहतर जगह होती है. यह कार्य उनके बड़े भाई या पिता कर सकते हैं. इसके लिये घर का माहौल कम से कम इतना खुला होना चाहिये कि लड़का अपनी समस्याएँ पिता को बता सकेi
छेड़छाड़ की समस्या के कारणों और समाधान के पड़ताल की यह समापन किस्त है. मैं दिनोदिन औरतों के साथ बढ़ रहे यौन शोषण और बलात्कार के मामलों से बहुत चिन्तित हूँ. मुझे ये नहीं लगता कि ये सब कुछलोगों की कुत्सित मानसिकता या औरतों के पहनावे का परिणाम है. इस तरह के विश्लेषण ऐसी गम्भीर समस्या को उथला और समाधान को असंभव बना देते हैं. यौन शोषण की समस्या की जड़ें हमारी सामाजिक संरचना में कहीं गहरे निहित हैं. वर्तमान काल की परिवर्तित होती परिस्थितियाँ, सांस्कृतिक संक्रमण, विभिन्न वर्गों के बीच बढ़ता अन्तराल आदि इस समस्या को और जटिल बना देते हैं. इस समस्या के कारण और समाधान खोजने के लिये समाज में एक लम्बी बहस चलाने की आवश्यकता है

With reference-http://indianwomanhasarrived.blogspot.com

शनिवार, 4 सितंबर 2010

मनरेगा में महिलाओं की भागीदारी बहुत कम

लखनऊ। उत्तर प्रदेश सरकार ने राज्य के बड़े क्षेत्र में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी (मनेरगा) योजना के तहत महिलाओं की भागीदारी काफी कम होना स्वीकार करते हुए दावा किया है कि इस वर्ष 10 लाख परिवारों को 100 दिन का रोजगार उपलब्ध कराया जाएगा। इस रणनीति का मुख्य उद्देश्य अत्यंत वंचिग वर्ग के पांच लाख परिवारों और पांच लाख महिला जॉबकार्ड धारकों अर्थात 10लाख वंचितों को चिन्हित करते हुए इन्हें 100 दिन का रोजगार वित्तीय वर्ष 2010-11 में उपलब्ध कराना है।
यह जानकारी राज्य के ग्राम्य विकास सचिव मनोज कुमार सिंह ने दी। सिंह ने बताया कि मनेरगा के तहत बुंदेलखंड व विंध्याचल के जिलों को छोड़कर राज्य के अन्य क्षेत्रों में योजना के तहत महिलाओं की भागीदारी निर्धारित 33 फीसदी से बहुत कम है। इस कारण राज्य के 26 जिलों में यह प्रस्तावित किया गया है कि कम से कम पांच लाख महिला जॉबकार्ड धारकों को चिन्हित कर उन्हें योजना के तहत काम पर आने के लिए प्रोत्साहित किया जाए।

प्रदेश में पंचायत चुनाव 11 से 25 अक्तूबर तक

लखनऊ। उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव चार चरणों में 11 से 25 अक्तूबर तक कराए जाएंगे। प्रदेश निर्वाचन आयोग के कार्यक्रम को राज्य सरकार ने गुरूवार देर रात अपनी मंजूरी दे दी। कार्यक्रम के अनुसार पहले चरण का चुनाव 11 अक्तूबर को होगा जिसके लिए नामांकन 23 से 25 सितम्बर तक भरा जाएगा।
दूसरे चरण का मतदान 14 अक्तूबर को होगा जिसके लिए नामांकन 26 से 28 सितम्बर तक दाखिल किया जाएगा। तीसरे चरण का मतदान 20 अक्तूबर को निर्धारित किया गया है जिसके लिए नामांकन 30 सितम्बर से शुरू होगा और यह तीन अक्तूबर तक चलेगा। चौथे और अंतिम चरण के नामांकन की प्रक्रिया चार से छह अक्तूबर तक चलेगी और चुनाव 25 अक्तूबर को होगा।
पहले और दूसरे चरण में हुए मतदान की मतगणना 28 अक्तूबर को और तीसरे तथा अंतिम चरण के चुनाव की मतगणना 30 अक्तूबर को होगी। निर्वाचन आयोग ने त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव का कार्यक्रम पिछले 23 अगस्त को राज्य सरकार को भेजा था। पंचायती राज विभाग ने देर रात कार्यक्रम को मंजूरी दे दी। अब इसे मंत्रिमंडल की औपचारिक मंजूरी मिलनी बाकी है।
किस जिले में किस चरण में चुनाव होगा इसे निर्वाचन आयोग तय करेगा। चुनाव की अधिसूचना आगामी 17 सितम्बर को जारी की जाएगी। निर्वाचन आयोग के सूत्रों ने शुक्रवार को कहा कि चुनाव की सभी तैयारी पूरी कर ली गई है। सभी जिलों को आवश्यक निर्देश और चुनाव सामग्री भेज दी गई है।
ग्राम प्रधान के साथ ही ग्राम पंचायत सदस्य, क्षेत्र पंचायत सदस्य और जिला पंचायत सदस्य के भी चुनाव कराए जा रहे हैं। लगभग डेढ़ महीने तक चलने वाली चुनाव प्रक्रिया में 51 हजार 921 ग्राम प्रधान, छह लाख 41 हजार 441 ग्राम पंचायत सदस्य, 63 हजार 701 जिला पंचायत सदस्य और दो हजार 622 जिला पंचायत सदस्यों का चुनाव होगा।

मंगलवार, 29 जून 2010

युवाओं ने बनाया यूथ फोरम





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सोमवार, 31 मई 2010

क्या है विशाखा जजमेंट

ज्ञात हो कि विशाखा जजमेंट सुप्रीम कोर्ट की तरफ से तब दिया गया था जब उसके सामने विशाखा बनाम राजस्थान सरकार का मसला आया था। यह मसला  राजस्थान के महिला कल्याण के कार्यक्रम ‘महिला सामाख्या’ में कार्यरत एक साथिन भंवरी  देवी के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना से जुड़ा था। भंवरी देवी बलात्कार कांड ने उस  दौर में तमाम महिला संगठनों को उद्वेलित किया था और उसे न्याय दिलाने के लिए देश भर में  जबर्दस्त प्रदर्शन हुए थे। भंवरी ने अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए गांव में एक दबंग परिवार में  बालविवाह रोकने के लिए थाने में शिकायत की थी जिससे नाराज उक्त परिवार के चार लोगों ने उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया था। मामला बाद में कोर्ट में पहुंचा और उसने कामकाजी महिलाओं की सुरक्षा को लेकर मील का पत्थर साबित होने वाला फैसला सुनाया था कि हर महिला कर्मचारी का कार्यस्थल पर यौनहिंसा से बचाव उसका संवैधानिक अधिकार है और इसे सुरक्षित करने की जिम्मेदारी मालिक तथा सरकार दोनों पर डाली गयी। हमारा संविधान बिना जेंडर, जाति, नस्लभेद के कोई भी पेशा चुनने का अधिकार देता है तथा साथ में अपने हर नागरिक के लिए गरिमामय जीवन जीने का हक भी देता है। संविधानप्रदत्त इन्हीं अधिकारों के आधार पर यह जजमेंट दिया गया था। इसी के बाद से कार्यस्थलों को सुरक्षित बनाने के लिए अलग से स्पष्ट कानून की मांग होती रही है। यघपि सरकार को यह काम स्वत: ही पहल लेकर करना चाहिए था क्योंकि भारतीय समाज में व्याप्त असुरक्षित माहौल से समाज और सरकार अनभिज्ञ नहीं है। जैसे-जैसे महिलाओं का सार्वजनिक दायरे में प्रवेश बढ़ता गया है वे उतनी ही बड़ी मात्रा में यौन हिंसा का शिकार होती गयी हैं। यूं घर-बाहर के अन्य सामाजिक क्षेत्र भी सुरक्षा के लिहाज से संकटग्रस्त ही रहे हैं, लेकिन नौकरीवाली जगह को विशेषत: सुरक्षित बनाने के लिए जवाबदेही तय करनेवाली बात थी। जानने योग्य है कि विशाखा जजमेंट के तुरन्त बाद तत्कालीन सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने देश भर के संस्थानों तथा शिक्षण संस्थानों को निर्देश जारी किया (13 अगस्त 1997) कि सभी संस्थान तथा मालिक अपने यहां यौन हिंसा से बचाव के लिए गाइडलाइन तैयार करें। यह भी जानने योग्य है कि इसी जजमेंट को आधार बनाते हुए दिल्ली में जेएनयू तथा दिल्ली विश्वविघालय ने अपने यहां अधिनियमों का निर्माण किया है। छात्रों-कर्मचारियों-शिक्षकों की जागरूकता के चलते इस पर एक हद तक अमल भी करना पड़ा है, कई यौन उत्पीड़क अध्यापक कर्मचारी दंडित भी हुए हैं लेकिन अब भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। सरकार तो मात्र निर्देश जारी करके निश्ंिचत हो गयी जबकि उसे इस जजमेंट के बाद खयाल आना चाहिए था कि इसे कानूनी शक्ल दी जाए। यह गाइडलाइन हैं और निश्चित ही उसकी सीमाएं हैं। मालिक, अभियोजक/ एम्प्लॉयर या कोई भी अन्य संस्थान बाध्य नहीं है कि अपने यहां यौन उत्पीड़न विरोधी कमेटियां बनाए ही या बचाव का उपाय न करने पर सजा का प्रावधान हो। जस्टिस काटजू के सवाल ने इस मुद्दे की तरफ नए सिरे से ध्यान आकर्षित किया है। अब सरकार को बताना चाहिए कि वह कब तक बिना कानून के सिर्फ अदालती जजमेंट के आधार पर कामचलाऊ रवैया अख्तियार किए रहेगी। कोर्ट ने कम से कम अपने फैसले के आधार पर महिलाओं के लिए सुरक्षित कार्यस्थल मुहैया कराने का प्रयास किया, लेकिन इस मामले में कानूनी बाध्यतावाली जवाबदेही संसद और प्रशासन को ही सुनिश्चित करनी है। अब न्यायालय अपने लिए जो रास्ता तय करे किन्तु उसका यह कदम जनहित में था और कोई भी प्रगतिशील न्यायप्रिय तथा बराबरी में विश्वास रखनेवाला व्यक्ति इसे जरूरी कदम मानेगा। 

गुरुवार, 27 मई 2010

लैंगिक न्याय (Gender Justice)


लैंगिक न्याय
लैंगिक न्याय अर्थात किसी के साथ लिंग के आधार पर भेद-भाव नहीं होना चाहिये। बहुत से लोग समलैंगिक अधिकारों को भी इसके अन्दर मानते हैं। समलैगिंकों के साथ भेदभाव होता है लेकिन वह इसलिये नहीं कि उनका लिंग क्या है वह इसलिये कि वे अपने लिंग के ही लोगों में रूचि रखते हैं। मेरे विचार से, समलैंगिग अधिकारों को लैंगिक न्याय के अन्दर रखना उचित नहीं है। उनके अधिकारों को अलग से नाम देना, या अल्पसंख्यक (Minority) या जातीय (ethnic) अधिकारों के अन्दर रखना, या Gay rights कहना ठीक होगा।
हम कुछ अन्य श्रेणी के व्यक्तियों के अदिकारों पर भी विचार करें, उदाहरणार्थः
  1. Trans- Sexual: यह वह लोग हैं जो एक लिंग के होते हैं पर बर्ताव दूसरे लिंग के व्यक्तियों की तरह से करते हैं;
  2. Trans gendered: लिंग परिवर्तित: यह वह व्यक्ति हैं जो आपरेशन करा कर अपना लिंग परिवर्तित करवा लेते हैं। इसमें सबसे चर्चित व्यक्ति रहे रीनी रिचर्डस्। ये पुरुष थे और आपरेशन करा कर महिला बन गये, पर उन्हें महिलाओं की टेनिस प्रतियोगिता में कभी भी खेलने नहीं दिया गया। उन्हें कुछ सम्मान तब मिला जब वे मार्टीना नवरोतिलोवा की कोच बनीं। मैंने इस तरह के लोगों के साथ हो रहे भेदभाव के बारे में Trans-gendered – सेक्स परिवर्तित पुरुष या स्त्री कि चिट्ठी पर लिखा है;
  3. Inter-Sex बीच के: लिंग डिजिटल नहीं है। मानव जाति को केवल पुरूष या स्त्री में ही नहीं बांटा जा सकता हैं। हम क्या हैं, कैसे हैं, यह क्रोमोसोम (chromosome) तय करते हैं। यह जोड़े में आते हैं। हम में क्रोमोसोम के २३ जोड़े रहते हैं। हम पुरूष हैं या स्त्री, यह २३वें जोड़े पर निर्भर करता है। महिलाओं में यह दोनों बड़े अर्थात XX होते हैं पुरूषों में एक बड़ा एक छोटा यानि कि XY रहते हैं। अक्सर प्रकृति अजीब खेल खेलती है। कुछ व्यक्तियों में २३वें क्रोमोसोम जोड़े में नहीं होते: कभी यह तीन या केवल एक होते हैं अर्थात XX,Yया XYY, या X, या Y. यह लोग पूर्ण पुरूष या स्त्री तो नहीं कहे जा सकते – शायद बीच के हैं। इसलिए इन्हें Inter-Sex कहा जाता है। संथी सुन्दराजन शायद इसी प्रकार की हैं। इसलिये दोहा एशियाई खेलो में, उनसे रजत पदक वापस ले लिया गया।
ऊपर वर्णित तीनो तरह के व्यक्तियों के साथ लिंग के आधार पर भेदभाव होता है। अधिकतर जगह, यह लोग हास्य के पात्र बनते हैं। इन्हें भी न्याय पाने का अधिकार है। पर अपने देश में लैंगिक न्याय का प्रयोग केवल महिलाओं के साथ न्याय के संदर्भ में किया जाता है और हम बात करेंगे महिलाओं के साथ न्याय, उनके सशक्तिकरण की: आज की दुर्गा की।
संविधान, कानूनी प्राविधान और अंतरराष्ट्रीय दस्तावेज
हमारे संविधान का अनुच्छेद १५(१), लिंग के आधार पर भेदभाव करना प्रतिबन्धित करता है पर अनुच्छेद १५ (२) महिलाओं और बच्चों के लिये अलग नियम बनाने की अनुमति देता है। यहीं कारण है कि महिलाओं और बच्चों को हमेशा वरीयता दी जा सकती है।

संविधान में ७३वें और ७४वें संशोधन के द्वारा स्थानीय निकायों को स्वायत्तशासी मान्यता दी गयी । इसमें यह भी बताया गया कि इन निकायों का किस किस प्रकार से गठन किया जायेगा। संविधान के अनुच्छेद २४३-डी और २४३-टी के अंतर्गत, इन निकायों के सदस्यों एवं उनके प्रमुखों की एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए सुरक्षित की गयीं हैं। यह सच है कि इस समय इसमें चुनी महिलाओं का काम, अक्सर उनके पति ही करते हैं पर शायद एक दशक बाद यह दृश्य बदल जाय।
उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम एक महत्वपूर्ण अधिनियम है। हमारे देश में इसका प्रयोग उस तरह से नही किया जा रहा है जिस तरह से किया जाना चाहिये। अभी उपभोक्ताओं में और जागरूकता चाहिये। इसके अन्दर हर जिले में उपभोक्ता मंच (District Consumer Forum) का गठन किया गया है। इसमें कम से कम एक महिला सदस्य होना अनिवार्य है {(धारा १०(१)(सी), १६(१)(बी) और २०(१)(बी)}।
परिवार न्यायालय अधिनियम के अन्दर परिवार न्यायालय का गठन किया गया है। पारिवारिक विवाद के मुकदमें इसी न्यायालय के अन्दर चलते हैं। इस अधिनियम की धारा ४(४)(बी) के अंतर्गत, न्यायालय में न्यायगण की नियुक्ति करते समय, महिलाओं को वरीयता दी गयी है।
अंर्तरार्ष्टीय स्तर पर सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज Convention of Elimination of Discrimination Against Women (CEDAW) (सीडॉ) है। सन १९७९ में, संयुक्त राष्ट्र ने इसकी पुष्टि की। हमने भी इसके अनुच्छेद ५(क), १६(१), १६(२), और २९ को छोड़, बाकी सारे अनुच्छेद को स्वीकार कर लिया है। संविधान के अनुच्छेद ५१ के अंतर्गत न्यायालय अपना फैसला देते समय या विधायिका कानून बनाते समय, अंतर्राष्ट्रीय संधि (Treaty) का सहारा ले सकते हैं। इस लेख में आगे कुछ उन फैसलों और कानूनों की चर्चा रहेगी जिसमें सीडॉ का सहारा लिया गया है।


गुरुवार, 20 मई 2010

घरेलू हिंसा कानून के दायरे में महिलाएं भी


नई दिल्ली ।। घरेलू हिंसा कानून के तहत सिर्फ पुरुषों के खिलाफ ही नहीं महिलाओं पर भी मामला चल सकता है। केंद्र सरकार के मुताबिक महिलाओंको घरेलू हिंसा से बचाने के लिए बने इस कानून की जद में महिलाएं भी आ सकती हैं। 

दिल्ली की कुछ अदालतों ने इस कानून के तहत महिलाओं के खिलाफ मुकदमों में कुछ फैसले लिए हैं। महिला और बाल विकास मंत्रालय ने कोर्ट में एक हलफनामा दाखिल कर कहा है कि सरकार अदालत के फैसलों का सम्मान करती है और उनका समर्थन करती है। मंत्रालय ने हलफनामे में कहा है कि इस एक्ट का मुख्य उद्देश्य महिलाओं को घरेलू हिंसा से बचाना है। लेकिन इसका यह कतई मतलब नहीं है कि महिलाओं को सिर्फ पुरुषों से बचाना है... हिंसा की शिकार महिला के पास घरेलू हिंसा से बचाव के लिए मौजूद कानून में उसे प्रताड़ित करने वाले के स्त्री या पुरुष होने से फर्क नहीं पड़ता है।

केंद्र सरकार का यह रुख एक महिला वर्षा कपूर की याचिका के जवाब में सामने आया है। वर्षा कपून ने अपने वकील के जरिए यह अपील की थी कि इस कानून की उस धारा को ख़त्म कर दिया जाए जिसमें महिलाओं को आरोपी बनाए जाने और उनपर मुकदमा चलाए जाने की बात कही गई है।

हिंसा पीड़ित महिलाओं का फ्री इलाज

हिंसा पीड़ित महिलाओं का फ्री इलाज


हिसार- घरेलू हिंसा पीड़ित महिलाओं का राज्य के सरकारी अस्पतालों में अब निशुल्क इलाज होगा। महिला एवं बाल विकास विभाग ने इस संबंध में राज्य के सभी सिविल सर्जनों को पत्र लिखा है।

घरेलू हिंसा से पीड़ित महिलाएं चोटिल होने पर राज्य के सरकारी अस्पतालों, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और उप केंद्रों में जाती हैं तो स्वास्थ्य विभाग उनसे मेडिको लीगल रिपोर्ट काटने के पैसे वसूल करता है। उनसे भी अन्य मरीजों की तरह पैसे लिए जाते हैं।

महिला एवं बाल विकास विभाग ने घरेलू हिंसा पीड़ित महिलाओं के निशुल्क इलाज के लिए महानिदेशक स्वास्थ्य सेवाएं डॉ. नरवीर सिंह के साथ मंत्रणा की थी। स्वास्थ्य विभाग ने पीड़ित महिलाओं की दयनीय स्थिति को समझते हुए उनका निशुल्क उपचार करने की योजना को हरी झंडी दे दी।

राज्य के स्वास्थ्य महानिदेशक डॉ. नरवीर सिंह ने सभी जिलों के सिविल सर्जनों को पत्र लिखकर इस आशय के आदेश दिए हैं। उधर महिला एवं बाल विकास विभाग ने भी राज्य के सभी जिलों की संरक्षण अधिकारियों को पत्र लिखकर इस योजना की जानकारी दे दी है।

क्या कहती हैं अधिकारी
संरक्षण अधिकारी बबीता चौधरी ने पत्र मिलने की पुष्टि करते हुए बताया कि उनका विभाग घरेलू हिंसा पीड़ित महिलाओं के हकों की लड़ाई निशुल्क लड़ता है। महिलाओं को न्याय दिलाने की दिशा में यह एक अच्छा कदम है।

उन्होंने कहा कि महिला एवं बाल विकास विभाग की ज्वाइंट डायरेक्टर शशि दून ने उन्हें पत्र लिखा है। अब कोई भी घरेलू हिंसा पीड़ित महिला नजदीकी सरकारी अस्पताल में जाकर मुफ्त इलाज करा सकेगा।
  Bhaskar News[IST](20/05/2010)

महिलाओ के प्रति हिंसा मे बढोतरी

महिलाओ के प्रति  हिंसा मे लगातार बढोतरी  

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गुरुवार, 13 मई 2010

महिलाओं पर अत्याचार मामले में यूपी अव्वल

महिलाओं पर अत्याचार के मामले में उत्तर प्रदेश पिछले पांच साल से पहले पायदान पर काबिज है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली दूसरे नंबर पर है, लेकिन वह यूपी से काफी पीछे है।
राष्ट्रीय महिला आयोग (एनसीडब्लू) के पास वित्त वर्ष 2009-10 के पहले आठ माह तक के उपलब्ध आंकड़ं के मुताबिक महिलाओं के प्रति अपराध को लेकर अकेले उत्तर प्रदेश से 6000 से अधिक शिकायतें दर्ज की गई हैं। आयोग का कहना है कि इस अवधि के दौरान देश भर में कुल 11,004 मामले दर्ज किए गए, जिनमें उत्तर प्रदेश से 6302 मामले दर्ज किए गए। दूसरे नंबर पर दिल्ली है जहां कुल 1405 मामले दर्ज हुए।
आयोग के मुताबिक वित्त वर्ष 2005-06 से 2009-10 तक महिलाओं के प्रति सबसे अधिक अपराध उत्तर प्रदेश में हुए। शुरुआती चार वर्ष में स्थिति अधिक भयावह रही, क्योंकि साल दर साल अपराधों की संख्या में इजाफा होता रहा और यह संख्या 5000 से बढ़ते हुए 8500 के पार पहुंच गया। आयोग से जुड़ लोगों का कहना है कि उत्तर प्रदेश में प्रतिदिन कम से कम 17 महिलाओं के खिलाफ गंभीर अपराध के मामले दर्ज होते हैं। यहां प्रताड़ना, दहेज हत्या, बलात्कार, छेड़खानी जैसे अपराध सबसे अधिक हो रहे हैं। 

साभार -अमर उजाला