सोमवार, 31 मई 2010

क्या है विशाखा जजमेंट

ज्ञात हो कि विशाखा जजमेंट सुप्रीम कोर्ट की तरफ से तब दिया गया था जब उसके सामने विशाखा बनाम राजस्थान सरकार का मसला आया था। यह मसला  राजस्थान के महिला कल्याण के कार्यक्रम ‘महिला सामाख्या’ में कार्यरत एक साथिन भंवरी  देवी के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना से जुड़ा था। भंवरी देवी बलात्कार कांड ने उस  दौर में तमाम महिला संगठनों को उद्वेलित किया था और उसे न्याय दिलाने के लिए देश भर में  जबर्दस्त प्रदर्शन हुए थे। भंवरी ने अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए गांव में एक दबंग परिवार में  बालविवाह रोकने के लिए थाने में शिकायत की थी जिससे नाराज उक्त परिवार के चार लोगों ने उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया था। मामला बाद में कोर्ट में पहुंचा और उसने कामकाजी महिलाओं की सुरक्षा को लेकर मील का पत्थर साबित होने वाला फैसला सुनाया था कि हर महिला कर्मचारी का कार्यस्थल पर यौनहिंसा से बचाव उसका संवैधानिक अधिकार है और इसे सुरक्षित करने की जिम्मेदारी मालिक तथा सरकार दोनों पर डाली गयी। हमारा संविधान बिना जेंडर, जाति, नस्लभेद के कोई भी पेशा चुनने का अधिकार देता है तथा साथ में अपने हर नागरिक के लिए गरिमामय जीवन जीने का हक भी देता है। संविधानप्रदत्त इन्हीं अधिकारों के आधार पर यह जजमेंट दिया गया था। इसी के बाद से कार्यस्थलों को सुरक्षित बनाने के लिए अलग से स्पष्ट कानून की मांग होती रही है। यघपि सरकार को यह काम स्वत: ही पहल लेकर करना चाहिए था क्योंकि भारतीय समाज में व्याप्त असुरक्षित माहौल से समाज और सरकार अनभिज्ञ नहीं है। जैसे-जैसे महिलाओं का सार्वजनिक दायरे में प्रवेश बढ़ता गया है वे उतनी ही बड़ी मात्रा में यौन हिंसा का शिकार होती गयी हैं। यूं घर-बाहर के अन्य सामाजिक क्षेत्र भी सुरक्षा के लिहाज से संकटग्रस्त ही रहे हैं, लेकिन नौकरीवाली जगह को विशेषत: सुरक्षित बनाने के लिए जवाबदेही तय करनेवाली बात थी। जानने योग्य है कि विशाखा जजमेंट के तुरन्त बाद तत्कालीन सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने देश भर के संस्थानों तथा शिक्षण संस्थानों को निर्देश जारी किया (13 अगस्त 1997) कि सभी संस्थान तथा मालिक अपने यहां यौन हिंसा से बचाव के लिए गाइडलाइन तैयार करें। यह भी जानने योग्य है कि इसी जजमेंट को आधार बनाते हुए दिल्ली में जेएनयू तथा दिल्ली विश्वविघालय ने अपने यहां अधिनियमों का निर्माण किया है। छात्रों-कर्मचारियों-शिक्षकों की जागरूकता के चलते इस पर एक हद तक अमल भी करना पड़ा है, कई यौन उत्पीड़क अध्यापक कर्मचारी दंडित भी हुए हैं लेकिन अब भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। सरकार तो मात्र निर्देश जारी करके निश्ंिचत हो गयी जबकि उसे इस जजमेंट के बाद खयाल आना चाहिए था कि इसे कानूनी शक्ल दी जाए। यह गाइडलाइन हैं और निश्चित ही उसकी सीमाएं हैं। मालिक, अभियोजक/ एम्प्लॉयर या कोई भी अन्य संस्थान बाध्य नहीं है कि अपने यहां यौन उत्पीड़न विरोधी कमेटियां बनाए ही या बचाव का उपाय न करने पर सजा का प्रावधान हो। जस्टिस काटजू के सवाल ने इस मुद्दे की तरफ नए सिरे से ध्यान आकर्षित किया है। अब सरकार को बताना चाहिए कि वह कब तक बिना कानून के सिर्फ अदालती जजमेंट के आधार पर कामचलाऊ रवैया अख्तियार किए रहेगी। कोर्ट ने कम से कम अपने फैसले के आधार पर महिलाओं के लिए सुरक्षित कार्यस्थल मुहैया कराने का प्रयास किया, लेकिन इस मामले में कानूनी बाध्यतावाली जवाबदेही संसद और प्रशासन को ही सुनिश्चित करनी है। अब न्यायालय अपने लिए जो रास्ता तय करे किन्तु उसका यह कदम जनहित में था और कोई भी प्रगतिशील न्यायप्रिय तथा बराबरी में विश्वास रखनेवाला व्यक्ति इसे जरूरी कदम मानेगा। 

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