शुक्रवार, 30 मार्च 2012

उफ़!!यह कैसी भूख???

अपने वतन का यह शख्श गोली खा कर मरा है
अपने वतन का ही शख्श भूख से बेहाल भी मरा है
कहो असली शहीद किसे समझे हम???
उपर्युक्त पंक्ति निश्चय ही जठराग्नि से सम्बंधित भूख के दर्द का बयान करती है पर आज मेरी लेखनी जिस भूख की समस्या से तालुकात रख रही है उसकी चर्चा इस बुद्धीजीवी समाज का हर तीसरा व्यक्ति खुलकर कर रहा है और अपने उदारवादी होने का पुख्ता सबूत दे रहा है.मैं बात कर रही हूँ कामाग्नि से सम्बंधित भूख की.इन दिनों एक और अवांछित शब्द ‘समलैंगिकता’ ने भी इस चर्चा में स्थान पा लिया है मानो बुद्धिजीविता, उदारवादिता का ठोस सबूत देने के लिए अब बस यही एक विकल्प शेष रह गया था.
मैं जिस विद्यालय में अध्यापन का कार्य कर रही थी वहां के sexual harrassment committee की मुख्य होने के नाते यदा-कदा किशोर वय के विद्यार्थियों से जुडी इस तरह की घटनाओं से रु-ब-रु होना ही पड़ता था.श्वेत कागज़ पर श्याम बिंदु की तरह दीखाई देने वाली ऐसी ही एक घटना के सिलसिले में जब मैंने मुख्याध्यापक से चर्चा की तो बड़े ही सहजता से उन्होंने मुझे समझाया“मैडम,यह तो मनुष्य का स्वाभाविक गुण है जैसे रोटी-दाल की भूख प्राकृतिक है बस वैसे ही यह भी है और अगर इस उम्र में किशोर ये सब ना समझें तो हम वयस्कों को समझना चाहिए कि इनका विकास असामान्य ढंग से हो रहा है”ये वे ही शख्श थे जिन्होंने गत सप्ताह एक विद्यार्थी को महज़ इसलिए सज़ा दी थी क्योंकि उसने चोरी से अपने सहपाठी के tiffin से भोजन चुरा कर खा लिया था .बुद्धीजीवी समाज के, आधुनिक विद्यालय की ,मैं एक संवेदनशील शिक्षिका, स्वयं को एक गहरी खाई में पाती हूँ ;जहाँ दूर-दूर तक रोशनी की एक भी किरण मौजूद न थी. उस दिन रात भर समाज की पुरी संवेदनशीलता मानो हथौड़ी बनकर प्रश्नों की मार से मेरे मस्तिष्क को घायल कर देना चाहती थीं.
मैं सोच रही थी कि रोटी-दाल की भूख भी तो नैतिकता और अनुशाषण के दायरे में ही शांत की जाती है; ये क्षुधापूर्ति भी तो उम्र,स्थान,समय,अवस्था से सीधा सम्बन्ध रखती है.क्या शिशु को जन्म के साथ ही ठोस आहार दिया जाने लगता है?क्या अपने बच्चों को हम दुसरे की थालियों से छीन-झपट कर भोजन करना सिखाते हैं ?क्या होटल में दूसरों की plates में स्वादिष्ट,लज़ीज़ भोजन देखकर हम उस पर टूट पड़ते हैं ?क्या हम कहीं भी,किसी भी स्थान,वक्त में कुछ भी खा कर भूख मिटा लेते हैं ?क्या हमारा आहार उम्र,समय,अवस्था,स्थान को दृष्टिकोण में रखकर निर्धारित नहीं होता ?क्या जो भोजन एक व्यस्क ग्रहण करता है वही भोजन एक बुजुर्ग या बालक आसानी से पचा सकता है?इसमें से हर एक प्रश्न सोचनीय है.कुतों को रोटी के लिए सबने लड़ते देखा है पर अगर इंसान रोटी झपटने के लिए लड़े तो उसे एक ही विशेषण से नवाज़ा जाता है ‘जानवर’….. जब जठराग्नि को शांत करने के लिए इतने नियम और अनुशाषण हैं जिसका पालन प्रत्येक सभ्य समाज करता है तो फिर कामाग्नि शांत करने के लिए नियमों,वर्जनाओं की खुली अवहेलना करना क्यों पसंद करता है?जैसे माता बच्चे की पेट की भूख शांत करने के लिए आहार उम्र के अनुसार तब तक तैयार करती है जब तक कि वह व्यस्क नहीं हो जाता वैसे ही हर उम्र के अनुसार माता को अपने बच्चों को इस क्षेत्र में भी सही शिक्षा देनी चाहिए ताकि वे एक मर्यादित नागरिक बन सकें और साथ ही यौन शोषण से भी बच सकें.
जयशंकर प्रसाद जी के हिंदी महाकाव्य ‘कामायनी’में ज़िक्र है कि “जब प्रलय हुआ और सारी धरती जलमग्न हो गयी थी तो सिर्फ श्रधा (नारी) और मनु (नर) बचे थे उनसे ‘मानव’ का जन्म हुआ”.यह सृजन का रहस्य था. मेरी राय में इस रहस्य की पवित्रता और शुचिता को ही हमारे पूर्वजों ने सोलह संस्कारों में से एक’ विवाह व्यवस्था ‘से जोड़ दिया ताकि मूल्यपरक समाज की स्थापना हो सके.प्रकृति में प्रत्येक गतिविधि नियमबद्ध है जिससे प्रेरित होकर ही सामाजिक नियमों की भी रचना की गयी.जानवरों की तरह काम वासनाओं की पूर्ति इंसान कहीं भी ,किसी के साथ भी ,किसी भी वक्त ना कर सके इसीलिये विवाह व्यवस्था की परम्परा शुरू हुई
भारत की पवित्र भूमि जहाँ से ज्ञान-विज्ञान का प्रचार-प्रसार हुआ;जिसने पुरे विश्व को शुन्य का ज्ञान,अंकों का ज्ञान,दशमलव प्रणाली,वेद का उपहार दिया उसी देश के वासी हम इतने अकिंचन हो गए हैं कि हमारे शब्दकोष में लावण्यता की प्रसंशा के लिए शब्दों का अकाल हो गया है!!!! हमने पश्चिम से शब्द आयात कर लिए हैं ‘कामुक’(सेक्सी) और सुंदर (beautiful )को एक दुसरे का पर्याय मान लिया गया .हम पाश्चात्य जीवन शैली की खैरात जुटाने में इतने मशगुल हो गए हैं कि अपने पूर्वजों के बनाए नियम ,अनुशाषण ,संस्कारों ,मूल्यों पर वट वृक्ष की जड़ों जैसी हमारी गहरी आस्था,विश्वास और श्रद्धा को कब इस पाश्चात्य जीवन शैली के अन्धानुकरण की दीमकों ने खोखला करना शुरू कर दिया हमें इस बात का एहसास ही नहीं है.एक स्त्री कामुक है तो सुंदर भी लग सकती है पर एक सुंदर स्त्री, सुंदर हो और कामुक भी लगे यह हमेशा संभव नहीं होता . सुन्दरता का सम्बन्ध शालीनता,शर्म,समझदारी उत्तम चरित्र जैसे मानदंडों पर भी मापा जाता है.
यह सत्य है कि ‘काम’ विषय पर सर्वोत्कृष्ट रचना ‘कामसूत्र’भी वात्सायन जी के द्वारा इसी भूमि पर लिखी गयी पर वह काम के खुलेपन का समर्थन नहीं करती क्योंकि इस ग्रन्थ के लिखने के पूर्व ही विवाह सोलह संस्कारों में स्थान प्राप्त कर चुका था और इसका उद्देश्य भी संतानोत्पति था ना कि कामवासना कि पूर्ति .खजुराहो के मंदिरों की दीवारों पर बने चित्र जैसी स्थापत्य कला के उदाहरण भी कम ही हैं पर इनका उद्देश्य भी इस विषय को नैतिकता के साथ,मर्यादापूर्ण समाज का हिस्सा बनाना ही है.
स्वाभाविक भूख चाहे क्षुधा की हो या काम की,जठराग्नि शांत करने की हो या कामाग्नि शांत करने की हो; इनकी वर्जनाओं को तोड़ना एक सभ्य,सुसंस्कृत,अनुशाषित समाज में कभी मान्य नहीं हो सकता .उम्र,समय,स्थान,अवस्था,आहार की गुणवत्ता के नियम अगर एक सभ्य समाज का तकाजा हैं तो यह पेट की भूख और काम की भूख दोनों पर सामान रूप से पर लागू होते हैं
कुछ बात है ऐसी कि हस्ती मिट्टी नहीं हमारी…….
बाकी मगर है अबतक नामो-निशान हमारा.
यह हमारी भारतीय संस्कृति की पवित्रता और शुचिता का ही प्रमाण है कि विवाह सात जन्मों का रिश्ता माना जाता है .हर घर,परिवार,समाज में सेक्स शब्द को सही आयु,समय,स्थान,रिश्ता,अवस्था जैसे तत्वों से सामंजस्य बिठा कर देखा जाए तो बलात्कार,विवाहेत्तर सम्बन्ध ,अवैध संबंधों,जैसी ज्वलंत समस्याएं खुद-ब-खुद ही ख़त्म हो सकती हैं यह अत्यंत आवश्यक है कि हम अपनी संस्कृति,मान-मर्यादा को कभी ना छोडें .अतीत में पुरे विश्व ने भारत से ज्ञान सीखा था और आज हमने उन सारी धरोहरों को किसी तहखाने में कैद कर दिया है पश्चिम देशों से उतना ही ग्रहण करें जिससे हम लाभान्वित हों पर हमारी संस्कृति नेपथ्य में ना जाए .ऐसी सीख किस काम की जो अपने ही संस्कारों पर ग्रहण लगा दे ?
मैं कोई बहुत चर्चित या महान लेखिका तो नहीं हूँ पर हाँ एक सभ्य,सुसंस्कृत ,अनुशाषित और संवेदनशील समाज का हिस्सा होने के कारण यह आह्वान अवश्य करती हूँ कि” हम सब सही अर्थों में बुद्धीजीवी बने और अपनी चिरंजीव भारतीय संस्कृति की रक्षा करें”

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सत्ता और सेक्स

सत्ता और सेक्स का घालमेल नया नहीं है. हाल ही राजस्थान की गवर्नमेंट को हिलाने वाली भंवरी देवी का केस पिछले कई दिनों से सुर्खियों में है और आने वाले कुछ दिनों या फिर कह लें कि महिनों तक न्यूज चैनल्स को इसी तरह टीआरपी दिलाता रहेगा. सत्ता का नशा और सत्ता का उपयोग अपने विलासिता के साधन जुटाने में करना….यह नेताओं के लिए नया ट्रेंड नहीं है. उत्तराखंड के वरिष्ठतम नेता नारायण दत्त तिवारी हों या फिर नेता प्रतिपक्ष हरक सिंह रावत, समय-समय पर इनका मनमोहनियों के साथ नाम जोड़ा गया है. भंवरी देवी का अपहरण हुआ है, वह बंधक है या फिर उसकी हत्या कर उसे जला दिया गया है, यह अभी तक रहस्य बना हुआ है, लेकिन इस मामले ने बुड्ढे ठरकी नेताओं की इज्जत उतार कर जरूर रख दी है. इस मामले में अपने दामन पर छींटे लगवा चुके मदरेणा की वाइफ जहां अपने पति को ही सपोर्ट कर रही है और उन्होंने यह तक कह डाला कि किसी ‘दूसरी’ के साथ अफेयर रखना क्राइम नहीं है. भंवरी देवी कोई साधारण महिला नहीं थी, बल्कि सत्ता के गलियारों में जहां उसकी ऊंची पहुंच थी, वहीं इस पहुंच को बरकरार रखने के लिए उसने शार्टकट का इस्तेमाल करने तक से गुरेज नहीं किया. भंवरी देवी के चरित्र को लेकर चर्चा करना बेकार होगा, क्योंकि किसी को कैरेक्टर सर्टिफिकेट देना हमारा काम नहीं है. यहां पर बात उन लंपट और काम पीडि़त बुड्ढों की ही की जानी चाहिए जिनके दामन पर दाग होने के बावजूद लोग इनके समर्थन में जुट जाते हैं. ईजिप्ट की महारानी किल्योपैट्रा का किंग एलेक्जेंडर के सामने समर्पण हो या फिर आज का मधुमिता हत्याकांड, नैना साहनी हत्याकांड या फिर भंवरी कांड लिस्ट लंबी है, लेकिन जो बात गौर करने लायक है वो ये है कि यहां पर शिकार केवल लड़कियां ही बनीं. अपनी भूख शांत करने के बाद हमारे देश के ठरकी पॉलिटिशियंस ने अपनी इन तथाकथित ‘प्रेमिकाओं’ को ही ठिकाने लगा दिया. उसका न तो इन्हें कभी कोई पछतावा रहा और न ही इनके फैमिली मेंबर्स को. इन्हें तो कभी शर्म आएगी नहीं, लेकिन हम जैसे लोगों को भी इनके कारनामे सामने आने के बावजूद शर्म नहीं आती और जब यह वोट की भीख मांगते हुए हमारी चौखट पर आते हैं तो समाज-नैतिकता के नाम पर दुहाई देने वाले हम लोग ही इन्हें चुनकर सत्ता में भेज देते हैं.
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महिलाएँ ! और सुरक्षित ?

गुडगाँव के पब में कामकाजी महिला के साथ गैंग रेप की घटना, मानवता को शर्मसार करती है. यह कोई पहली बार नहीं है कि किसी महिला के साथ गैंगरेप, बलात्कार या छेड़खानी की वारदात हुई है. आये दिन जाने ऐसी कितनी घटनाएँ प्रकाश में आती रहती है और इससे भी कहीं ज्यादा महिलाओं के साथ घटित उन घटनाओं की संख्या है जो कि प्रकाश में नहीं आती हैं या फिर यह कहिये कि जिन्हें प्रकाश में आने नहीं दिया जाता है. चाहें समाज हो, प्रशासन हो, स्वयं सेवी संस्था हो या फिर साहित्य जगत, सब के सब ऐसी समस्याओं का समाधान खोजने की बजाय उसमें मिर्च-मसाला लगाकर एक दुसरे के सामने परोशने में लगे रहते हैं. ताकि पीड़िता लोक-लाज के मारे अपनी जुबान पे ताला लगा ले या फिर शर्म से खुदखुशी कर ले और इस प्रकार महिलाओं का शारीरक और मानसिक शोषण सतत चलता रहता है. चूँकि गुडगाँव की शर्मशार करने वाली घटना समाज के मान-मर्यादा, लोक-लाज की सीमाओं को चीरती हुई बाहर आ चूँकि है. अतः मौका देखकर सारे शरीफ (समाज, प्रशासन, स्वयं सेवी संस्था, मीडिया और साहित्य जगत इत्यादि) तन पर शराफत की चादर डालें खुद को शरीफ कहलाने की दौड़ में एक दुसरे पर छीटा-कशी में जुट गए हैं. मानों बरसाती मेढक मौसम के मिजाज को देखकर खेत और खलिहानों में टर-टर की आवाज लगा रहे हो. आखिर यही तो उपयुक्त समय है अपनी संख्या बढाने के लिए प्रजनन करने का. इन दूध के धुलें हुए शरीफों से यह पूछना चाहता हूँ कि मान-मर्यादा, इज्जत और मानवता की इतनी चिंता है तो फिर ऐसी घटनाओं को अंजाम क्यों देते हो? आख़िरकार वो घिनौना चेहरा हमी में से किसी एक का है. हमारे बीच होने वाली यह घटनाएँ यह सोचने पर मजबुर करती है कि क्या हम सच में मानव ही है जिनका सामाजिक और मानसिक स्तर जानवरों से भी निचे गिर चूका है? इन घटनाओ के पीछे एक गन्दी मानसिकता और सोच है जिसका कोई एक चेहरा नहीं हो सकता. चाहें समाज हो, प्रशासन हो, स्वयंसेवी संस्था हो या फिर हमारा जागरण जन्शन मंच, सब के सब एक सुर-ताल में अपन राग अलापे जा रहे हैं. यहाँ एक प्रश्न रखना चाहता हूँ कि इस घटना का शिकार हमारी बहन और बेटी हुई होती तो हम क्या करते? यदि इस वारदात को कोई अपना बेटा, भाई या बाप अंजाम दिया होता तो हम क्या करते……..? हम यह कर देते और हम वो कर देते…… अरे साहब डींगे हाकना छोडिये. मैं कोई आसमान से उतरा फ़रिश्ता नहीं हूँ. मैं भी इसी हकीकत के धरातल पर रहता हूँ. सारी हकीकत से वाकिफ हूँ. जो इन घटनाओं को अंजाम देते हैं, वो और उनके अपने भी कल तक यही कहते आये हैं, जो आपके दिमाग में चल रहा है. पर आज वो खुद को दागदाग होने से बचाने में लगे होंगे. इस अवसर पर एक शायर की कही हुई बात याद आ गयी…एक ही उल्लू काफी है,वीरां गुलिस्तां करने को; उस देश का यारों क्या होगा जहाँ हर शाख पर उल्लू बैठे हैं.

ऐसी घटना क्रम को रोकने के लिए स्थानीय पुलिस ने यह फरमान जारी किया है कि अगर रात को आठ बजे के बाद महिलाओं से काम करवाना है तो पहले श्रम विभाग से अनुमति लेनी होगी। इस फरमान के विरोध में, जो मीडिया और महिला आयोग के फरमान आये हैं, उससे तो स्पष्ट होता है कि हरेक महिला के साथ, चाहें वो घर के भीतर हो या बाहर, एक सुरक्षाकर्मी लगा दिया जाय क्योंकि महिलाओं के साथ ऐसी घिनौनी वारदातें अन्दर-बाहर,हरेक जगह हो रही है. यदि सुरक्षाकर्मी कम पड़ जाते हैं तो कुछ मीडिया और महिला आयोग से ले लिया जाय ताकि महिलाओं का शारीरिक और मानसिक शोषण करने का एक और मौका मिल जाये और वो लाचार होकर इज्जत-आबरू की खातिर एक बार फिर कठपुतली बन जाये. कुछ लोग मानते है कि महिलाओं को देर रात तक बाहर रहना अपराध को दावत देने जैसा है. अतः पुलिस द्वारा उठाये गए इस कदम की सराहना कर रहे हैं. वो लोग इस बात को सिद्ध कर रहे है कि औरत सिर्फ एक उपभोग की वस्तु है जिसे हरेक समय और हरेक जगह व्यवस्थित नहीं किया जा सकता.

प्रथम सवाल : क्या हमारा सुरक्षा तंत्र महिलाओं की सुरक्षा करने में पूरी तरह असफल हो चुका है?

मेरे विचार : हाँ. परन्तु इसके जिम्मेदार सुरक्षा तंत्र नहीं बल्कि उस तंत्र के लोग है जो हमारे सामाजिक तंत्र के अभिन्न हिस्सा है. जब हमारा सामाजिक और मानसिक स्तर का हास हुआ है तो उसका प्रभाव हरेक तंत्र पड़ना एक स्वाभाविक घटनाक्रम होगा क्योंकि किसी भी तंत्र का निर्माण सामाजिक तंत्र के अवयवों से होता है. ऐसी परिस्थिति में समस्याओं को समाधान खोजने की बजाय एक दुसरे को दोषी ठहराना कहाँ तक उचित होगा?

द्वितीय सवाल: अगर किसी महिला के साथ बलात्कार होता है तो क्या वह स्वयं इसके लिए जिम्मेदार है, इस घटना का दोष पुरुष को नहीं दिया जाना चाहिए?


मेरे विचार : यदि किसी महिला के साथ ऐसी वारदात होती है तो इसके लिए जिम्मेदार, ना ही उक्त महिला है और ना ही पुरुष बल्कि जिम्मेदार है हमारे गंदे सामाजिक और मानसिक स्तर जिसके आवरण से हम सभी खुद को मुक्त नहीं करना चाहते.

तृतीय सवाल : क्या पंजाब शॉप्स एंड कमर्शियल एस्टैब्लिशमेंट एक्ट 1958 लागू करने के बाद रात आठ बजे से पहले महिलाएं खुद को सुरक्षित मान सकती हैं?

मेरे विचार : जबकि किसी एक्ट को लागु करने वाले और तोड़ने वाले भी हम ही हैं तो दुनिया का कोई भी एक्ट लागु कर दिया जाय ऐसी घिनौनी घटनाओं को घटित होने से नहीं रोका जा सकता.
चतुर्थ सवाल : क्या पुलिस और सुरक्षा प्रबंधन इस बात की गारंटी लेते हैं कि अब दिन के समय कोई महिला किसी दरिंदे की घृणित मानसिकता का शिकार नहीं होगी?

मेरे विचार : पुलिस और सुरक्षा प्रबंधन की बात छोडिये. मैं सारे प्रबंधन की बात करता हूँ. क्या कोई इस बात की गारंटी लेगा कि उसके तंत्र में अब दिन के समय कोई महिला किसी दरिंदे की घृणित मानसिकता का शिकार नहीं होगी? क्या आप इस बात की गारंटी लेते है, क्या हम इस बात की गारंटी लेते है कि मौका मिलने पर हमारे द्वारा कोई महिला हमारी गन्दी मानसिकता का शिकार नहीं होगी? यह सवाल मैं व्यक्ति विशेष पर नहीं बल्कि समाज की विचारधारा पर उठा रहा हूँ.

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