शुक्रवार, 30 मार्च 2012

उफ़!!यह कैसी भूख???

अपने वतन का यह शख्श गोली खा कर मरा है
अपने वतन का ही शख्श भूख से बेहाल भी मरा है
कहो असली शहीद किसे समझे हम???
उपर्युक्त पंक्ति निश्चय ही जठराग्नि से सम्बंधित भूख के दर्द का बयान करती है पर आज मेरी लेखनी जिस भूख की समस्या से तालुकात रख रही है उसकी चर्चा इस बुद्धीजीवी समाज का हर तीसरा व्यक्ति खुलकर कर रहा है और अपने उदारवादी होने का पुख्ता सबूत दे रहा है.मैं बात कर रही हूँ कामाग्नि से सम्बंधित भूख की.इन दिनों एक और अवांछित शब्द ‘समलैंगिकता’ ने भी इस चर्चा में स्थान पा लिया है मानो बुद्धिजीविता, उदारवादिता का ठोस सबूत देने के लिए अब बस यही एक विकल्प शेष रह गया था.
मैं जिस विद्यालय में अध्यापन का कार्य कर रही थी वहां के sexual harrassment committee की मुख्य होने के नाते यदा-कदा किशोर वय के विद्यार्थियों से जुडी इस तरह की घटनाओं से रु-ब-रु होना ही पड़ता था.श्वेत कागज़ पर श्याम बिंदु की तरह दीखाई देने वाली ऐसी ही एक घटना के सिलसिले में जब मैंने मुख्याध्यापक से चर्चा की तो बड़े ही सहजता से उन्होंने मुझे समझाया“मैडम,यह तो मनुष्य का स्वाभाविक गुण है जैसे रोटी-दाल की भूख प्राकृतिक है बस वैसे ही यह भी है और अगर इस उम्र में किशोर ये सब ना समझें तो हम वयस्कों को समझना चाहिए कि इनका विकास असामान्य ढंग से हो रहा है”ये वे ही शख्श थे जिन्होंने गत सप्ताह एक विद्यार्थी को महज़ इसलिए सज़ा दी थी क्योंकि उसने चोरी से अपने सहपाठी के tiffin से भोजन चुरा कर खा लिया था .बुद्धीजीवी समाज के, आधुनिक विद्यालय की ,मैं एक संवेदनशील शिक्षिका, स्वयं को एक गहरी खाई में पाती हूँ ;जहाँ दूर-दूर तक रोशनी की एक भी किरण मौजूद न थी. उस दिन रात भर समाज की पुरी संवेदनशीलता मानो हथौड़ी बनकर प्रश्नों की मार से मेरे मस्तिष्क को घायल कर देना चाहती थीं.
मैं सोच रही थी कि रोटी-दाल की भूख भी तो नैतिकता और अनुशाषण के दायरे में ही शांत की जाती है; ये क्षुधापूर्ति भी तो उम्र,स्थान,समय,अवस्था से सीधा सम्बन्ध रखती है.क्या शिशु को जन्म के साथ ही ठोस आहार दिया जाने लगता है?क्या अपने बच्चों को हम दुसरे की थालियों से छीन-झपट कर भोजन करना सिखाते हैं ?क्या होटल में दूसरों की plates में स्वादिष्ट,लज़ीज़ भोजन देखकर हम उस पर टूट पड़ते हैं ?क्या हम कहीं भी,किसी भी स्थान,वक्त में कुछ भी खा कर भूख मिटा लेते हैं ?क्या हमारा आहार उम्र,समय,अवस्था,स्थान को दृष्टिकोण में रखकर निर्धारित नहीं होता ?क्या जो भोजन एक व्यस्क ग्रहण करता है वही भोजन एक बुजुर्ग या बालक आसानी से पचा सकता है?इसमें से हर एक प्रश्न सोचनीय है.कुतों को रोटी के लिए सबने लड़ते देखा है पर अगर इंसान रोटी झपटने के लिए लड़े तो उसे एक ही विशेषण से नवाज़ा जाता है ‘जानवर’….. जब जठराग्नि को शांत करने के लिए इतने नियम और अनुशाषण हैं जिसका पालन प्रत्येक सभ्य समाज करता है तो फिर कामाग्नि शांत करने के लिए नियमों,वर्जनाओं की खुली अवहेलना करना क्यों पसंद करता है?जैसे माता बच्चे की पेट की भूख शांत करने के लिए आहार उम्र के अनुसार तब तक तैयार करती है जब तक कि वह व्यस्क नहीं हो जाता वैसे ही हर उम्र के अनुसार माता को अपने बच्चों को इस क्षेत्र में भी सही शिक्षा देनी चाहिए ताकि वे एक मर्यादित नागरिक बन सकें और साथ ही यौन शोषण से भी बच सकें.
जयशंकर प्रसाद जी के हिंदी महाकाव्य ‘कामायनी’में ज़िक्र है कि “जब प्रलय हुआ और सारी धरती जलमग्न हो गयी थी तो सिर्फ श्रधा (नारी) और मनु (नर) बचे थे उनसे ‘मानव’ का जन्म हुआ”.यह सृजन का रहस्य था. मेरी राय में इस रहस्य की पवित्रता और शुचिता को ही हमारे पूर्वजों ने सोलह संस्कारों में से एक’ विवाह व्यवस्था ‘से जोड़ दिया ताकि मूल्यपरक समाज की स्थापना हो सके.प्रकृति में प्रत्येक गतिविधि नियमबद्ध है जिससे प्रेरित होकर ही सामाजिक नियमों की भी रचना की गयी.जानवरों की तरह काम वासनाओं की पूर्ति इंसान कहीं भी ,किसी के साथ भी ,किसी भी वक्त ना कर सके इसीलिये विवाह व्यवस्था की परम्परा शुरू हुई
भारत की पवित्र भूमि जहाँ से ज्ञान-विज्ञान का प्रचार-प्रसार हुआ;जिसने पुरे विश्व को शुन्य का ज्ञान,अंकों का ज्ञान,दशमलव प्रणाली,वेद का उपहार दिया उसी देश के वासी हम इतने अकिंचन हो गए हैं कि हमारे शब्दकोष में लावण्यता की प्रसंशा के लिए शब्दों का अकाल हो गया है!!!! हमने पश्चिम से शब्द आयात कर लिए हैं ‘कामुक’(सेक्सी) और सुंदर (beautiful )को एक दुसरे का पर्याय मान लिया गया .हम पाश्चात्य जीवन शैली की खैरात जुटाने में इतने मशगुल हो गए हैं कि अपने पूर्वजों के बनाए नियम ,अनुशाषण ,संस्कारों ,मूल्यों पर वट वृक्ष की जड़ों जैसी हमारी गहरी आस्था,विश्वास और श्रद्धा को कब इस पाश्चात्य जीवन शैली के अन्धानुकरण की दीमकों ने खोखला करना शुरू कर दिया हमें इस बात का एहसास ही नहीं है.एक स्त्री कामुक है तो सुंदर भी लग सकती है पर एक सुंदर स्त्री, सुंदर हो और कामुक भी लगे यह हमेशा संभव नहीं होता . सुन्दरता का सम्बन्ध शालीनता,शर्म,समझदारी उत्तम चरित्र जैसे मानदंडों पर भी मापा जाता है.
यह सत्य है कि ‘काम’ विषय पर सर्वोत्कृष्ट रचना ‘कामसूत्र’भी वात्सायन जी के द्वारा इसी भूमि पर लिखी गयी पर वह काम के खुलेपन का समर्थन नहीं करती क्योंकि इस ग्रन्थ के लिखने के पूर्व ही विवाह सोलह संस्कारों में स्थान प्राप्त कर चुका था और इसका उद्देश्य भी संतानोत्पति था ना कि कामवासना कि पूर्ति .खजुराहो के मंदिरों की दीवारों पर बने चित्र जैसी स्थापत्य कला के उदाहरण भी कम ही हैं पर इनका उद्देश्य भी इस विषय को नैतिकता के साथ,मर्यादापूर्ण समाज का हिस्सा बनाना ही है.
स्वाभाविक भूख चाहे क्षुधा की हो या काम की,जठराग्नि शांत करने की हो या कामाग्नि शांत करने की हो; इनकी वर्जनाओं को तोड़ना एक सभ्य,सुसंस्कृत,अनुशाषित समाज में कभी मान्य नहीं हो सकता .उम्र,समय,स्थान,अवस्था,आहार की गुणवत्ता के नियम अगर एक सभ्य समाज का तकाजा हैं तो यह पेट की भूख और काम की भूख दोनों पर सामान रूप से पर लागू होते हैं
कुछ बात है ऐसी कि हस्ती मिट्टी नहीं हमारी…….
बाकी मगर है अबतक नामो-निशान हमारा.
यह हमारी भारतीय संस्कृति की पवित्रता और शुचिता का ही प्रमाण है कि विवाह सात जन्मों का रिश्ता माना जाता है .हर घर,परिवार,समाज में सेक्स शब्द को सही आयु,समय,स्थान,रिश्ता,अवस्था जैसे तत्वों से सामंजस्य बिठा कर देखा जाए तो बलात्कार,विवाहेत्तर सम्बन्ध ,अवैध संबंधों,जैसी ज्वलंत समस्याएं खुद-ब-खुद ही ख़त्म हो सकती हैं यह अत्यंत आवश्यक है कि हम अपनी संस्कृति,मान-मर्यादा को कभी ना छोडें .अतीत में पुरे विश्व ने भारत से ज्ञान सीखा था और आज हमने उन सारी धरोहरों को किसी तहखाने में कैद कर दिया है पश्चिम देशों से उतना ही ग्रहण करें जिससे हम लाभान्वित हों पर हमारी संस्कृति नेपथ्य में ना जाए .ऐसी सीख किस काम की जो अपने ही संस्कारों पर ग्रहण लगा दे ?
मैं कोई बहुत चर्चित या महान लेखिका तो नहीं हूँ पर हाँ एक सभ्य,सुसंस्कृत ,अनुशाषित और संवेदनशील समाज का हिस्सा होने के कारण यह आह्वान अवश्य करती हूँ कि” हम सब सही अर्थों में बुद्धीजीवी बने और अपनी चिरंजीव भारतीय संस्कृति की रक्षा करें”

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सत्ता और सेक्स

सत्ता और सेक्स का घालमेल नया नहीं है. हाल ही राजस्थान की गवर्नमेंट को हिलाने वाली भंवरी देवी का केस पिछले कई दिनों से सुर्खियों में है और आने वाले कुछ दिनों या फिर कह लें कि महिनों तक न्यूज चैनल्स को इसी तरह टीआरपी दिलाता रहेगा. सत्ता का नशा और सत्ता का उपयोग अपने विलासिता के साधन जुटाने में करना….यह नेताओं के लिए नया ट्रेंड नहीं है. उत्तराखंड के वरिष्ठतम नेता नारायण दत्त तिवारी हों या फिर नेता प्रतिपक्ष हरक सिंह रावत, समय-समय पर इनका मनमोहनियों के साथ नाम जोड़ा गया है. भंवरी देवी का अपहरण हुआ है, वह बंधक है या फिर उसकी हत्या कर उसे जला दिया गया है, यह अभी तक रहस्य बना हुआ है, लेकिन इस मामले ने बुड्ढे ठरकी नेताओं की इज्जत उतार कर जरूर रख दी है. इस मामले में अपने दामन पर छींटे लगवा चुके मदरेणा की वाइफ जहां अपने पति को ही सपोर्ट कर रही है और उन्होंने यह तक कह डाला कि किसी ‘दूसरी’ के साथ अफेयर रखना क्राइम नहीं है. भंवरी देवी कोई साधारण महिला नहीं थी, बल्कि सत्ता के गलियारों में जहां उसकी ऊंची पहुंच थी, वहीं इस पहुंच को बरकरार रखने के लिए उसने शार्टकट का इस्तेमाल करने तक से गुरेज नहीं किया. भंवरी देवी के चरित्र को लेकर चर्चा करना बेकार होगा, क्योंकि किसी को कैरेक्टर सर्टिफिकेट देना हमारा काम नहीं है. यहां पर बात उन लंपट और काम पीडि़त बुड्ढों की ही की जानी चाहिए जिनके दामन पर दाग होने के बावजूद लोग इनके समर्थन में जुट जाते हैं. ईजिप्ट की महारानी किल्योपैट्रा का किंग एलेक्जेंडर के सामने समर्पण हो या फिर आज का मधुमिता हत्याकांड, नैना साहनी हत्याकांड या फिर भंवरी कांड लिस्ट लंबी है, लेकिन जो बात गौर करने लायक है वो ये है कि यहां पर शिकार केवल लड़कियां ही बनीं. अपनी भूख शांत करने के बाद हमारे देश के ठरकी पॉलिटिशियंस ने अपनी इन तथाकथित ‘प्रेमिकाओं’ को ही ठिकाने लगा दिया. उसका न तो इन्हें कभी कोई पछतावा रहा और न ही इनके फैमिली मेंबर्स को. इन्हें तो कभी शर्म आएगी नहीं, लेकिन हम जैसे लोगों को भी इनके कारनामे सामने आने के बावजूद शर्म नहीं आती और जब यह वोट की भीख मांगते हुए हमारी चौखट पर आते हैं तो समाज-नैतिकता के नाम पर दुहाई देने वाले हम लोग ही इन्हें चुनकर सत्ता में भेज देते हैं.
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महिलाएँ ! और सुरक्षित ?

गुडगाँव के पब में कामकाजी महिला के साथ गैंग रेप की घटना, मानवता को शर्मसार करती है. यह कोई पहली बार नहीं है कि किसी महिला के साथ गैंगरेप, बलात्कार या छेड़खानी की वारदात हुई है. आये दिन जाने ऐसी कितनी घटनाएँ प्रकाश में आती रहती है और इससे भी कहीं ज्यादा महिलाओं के साथ घटित उन घटनाओं की संख्या है जो कि प्रकाश में नहीं आती हैं या फिर यह कहिये कि जिन्हें प्रकाश में आने नहीं दिया जाता है. चाहें समाज हो, प्रशासन हो, स्वयं सेवी संस्था हो या फिर साहित्य जगत, सब के सब ऐसी समस्याओं का समाधान खोजने की बजाय उसमें मिर्च-मसाला लगाकर एक दुसरे के सामने परोशने में लगे रहते हैं. ताकि पीड़िता लोक-लाज के मारे अपनी जुबान पे ताला लगा ले या फिर शर्म से खुदखुशी कर ले और इस प्रकार महिलाओं का शारीरक और मानसिक शोषण सतत चलता रहता है. चूँकि गुडगाँव की शर्मशार करने वाली घटना समाज के मान-मर्यादा, लोक-लाज की सीमाओं को चीरती हुई बाहर आ चूँकि है. अतः मौका देखकर सारे शरीफ (समाज, प्रशासन, स्वयं सेवी संस्था, मीडिया और साहित्य जगत इत्यादि) तन पर शराफत की चादर डालें खुद को शरीफ कहलाने की दौड़ में एक दुसरे पर छीटा-कशी में जुट गए हैं. मानों बरसाती मेढक मौसम के मिजाज को देखकर खेत और खलिहानों में टर-टर की आवाज लगा रहे हो. आखिर यही तो उपयुक्त समय है अपनी संख्या बढाने के लिए प्रजनन करने का. इन दूध के धुलें हुए शरीफों से यह पूछना चाहता हूँ कि मान-मर्यादा, इज्जत और मानवता की इतनी चिंता है तो फिर ऐसी घटनाओं को अंजाम क्यों देते हो? आख़िरकार वो घिनौना चेहरा हमी में से किसी एक का है. हमारे बीच होने वाली यह घटनाएँ यह सोचने पर मजबुर करती है कि क्या हम सच में मानव ही है जिनका सामाजिक और मानसिक स्तर जानवरों से भी निचे गिर चूका है? इन घटनाओ के पीछे एक गन्दी मानसिकता और सोच है जिसका कोई एक चेहरा नहीं हो सकता. चाहें समाज हो, प्रशासन हो, स्वयंसेवी संस्था हो या फिर हमारा जागरण जन्शन मंच, सब के सब एक सुर-ताल में अपन राग अलापे जा रहे हैं. यहाँ एक प्रश्न रखना चाहता हूँ कि इस घटना का शिकार हमारी बहन और बेटी हुई होती तो हम क्या करते? यदि इस वारदात को कोई अपना बेटा, भाई या बाप अंजाम दिया होता तो हम क्या करते……..? हम यह कर देते और हम वो कर देते…… अरे साहब डींगे हाकना छोडिये. मैं कोई आसमान से उतरा फ़रिश्ता नहीं हूँ. मैं भी इसी हकीकत के धरातल पर रहता हूँ. सारी हकीकत से वाकिफ हूँ. जो इन घटनाओं को अंजाम देते हैं, वो और उनके अपने भी कल तक यही कहते आये हैं, जो आपके दिमाग में चल रहा है. पर आज वो खुद को दागदाग होने से बचाने में लगे होंगे. इस अवसर पर एक शायर की कही हुई बात याद आ गयी…एक ही उल्लू काफी है,वीरां गुलिस्तां करने को; उस देश का यारों क्या होगा जहाँ हर शाख पर उल्लू बैठे हैं.

ऐसी घटना क्रम को रोकने के लिए स्थानीय पुलिस ने यह फरमान जारी किया है कि अगर रात को आठ बजे के बाद महिलाओं से काम करवाना है तो पहले श्रम विभाग से अनुमति लेनी होगी। इस फरमान के विरोध में, जो मीडिया और महिला आयोग के फरमान आये हैं, उससे तो स्पष्ट होता है कि हरेक महिला के साथ, चाहें वो घर के भीतर हो या बाहर, एक सुरक्षाकर्मी लगा दिया जाय क्योंकि महिलाओं के साथ ऐसी घिनौनी वारदातें अन्दर-बाहर,हरेक जगह हो रही है. यदि सुरक्षाकर्मी कम पड़ जाते हैं तो कुछ मीडिया और महिला आयोग से ले लिया जाय ताकि महिलाओं का शारीरिक और मानसिक शोषण करने का एक और मौका मिल जाये और वो लाचार होकर इज्जत-आबरू की खातिर एक बार फिर कठपुतली बन जाये. कुछ लोग मानते है कि महिलाओं को देर रात तक बाहर रहना अपराध को दावत देने जैसा है. अतः पुलिस द्वारा उठाये गए इस कदम की सराहना कर रहे हैं. वो लोग इस बात को सिद्ध कर रहे है कि औरत सिर्फ एक उपभोग की वस्तु है जिसे हरेक समय और हरेक जगह व्यवस्थित नहीं किया जा सकता.

प्रथम सवाल : क्या हमारा सुरक्षा तंत्र महिलाओं की सुरक्षा करने में पूरी तरह असफल हो चुका है?

मेरे विचार : हाँ. परन्तु इसके जिम्मेदार सुरक्षा तंत्र नहीं बल्कि उस तंत्र के लोग है जो हमारे सामाजिक तंत्र के अभिन्न हिस्सा है. जब हमारा सामाजिक और मानसिक स्तर का हास हुआ है तो उसका प्रभाव हरेक तंत्र पड़ना एक स्वाभाविक घटनाक्रम होगा क्योंकि किसी भी तंत्र का निर्माण सामाजिक तंत्र के अवयवों से होता है. ऐसी परिस्थिति में समस्याओं को समाधान खोजने की बजाय एक दुसरे को दोषी ठहराना कहाँ तक उचित होगा?

द्वितीय सवाल: अगर किसी महिला के साथ बलात्कार होता है तो क्या वह स्वयं इसके लिए जिम्मेदार है, इस घटना का दोष पुरुष को नहीं दिया जाना चाहिए?


मेरे विचार : यदि किसी महिला के साथ ऐसी वारदात होती है तो इसके लिए जिम्मेदार, ना ही उक्त महिला है और ना ही पुरुष बल्कि जिम्मेदार है हमारे गंदे सामाजिक और मानसिक स्तर जिसके आवरण से हम सभी खुद को मुक्त नहीं करना चाहते.

तृतीय सवाल : क्या पंजाब शॉप्स एंड कमर्शियल एस्टैब्लिशमेंट एक्ट 1958 लागू करने के बाद रात आठ बजे से पहले महिलाएं खुद को सुरक्षित मान सकती हैं?

मेरे विचार : जबकि किसी एक्ट को लागु करने वाले और तोड़ने वाले भी हम ही हैं तो दुनिया का कोई भी एक्ट लागु कर दिया जाय ऐसी घिनौनी घटनाओं को घटित होने से नहीं रोका जा सकता.
चतुर्थ सवाल : क्या पुलिस और सुरक्षा प्रबंधन इस बात की गारंटी लेते हैं कि अब दिन के समय कोई महिला किसी दरिंदे की घृणित मानसिकता का शिकार नहीं होगी?

मेरे विचार : पुलिस और सुरक्षा प्रबंधन की बात छोडिये. मैं सारे प्रबंधन की बात करता हूँ. क्या कोई इस बात की गारंटी लेगा कि उसके तंत्र में अब दिन के समय कोई महिला किसी दरिंदे की घृणित मानसिकता का शिकार नहीं होगी? क्या आप इस बात की गारंटी लेते है, क्या हम इस बात की गारंटी लेते है कि मौका मिलने पर हमारे द्वारा कोई महिला हमारी गन्दी मानसिकता का शिकार नहीं होगी? यह सवाल मैं व्यक्ति विशेष पर नहीं बल्कि समाज की विचारधारा पर उठा रहा हूँ.

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मंगलवार, 13 सितंबर 2011

समलैंगिकता – विकृति या सामाजिक अपराध

समलैंगिकता के ऊपर गत कुछ समय से निरंतर बहस जारी है. इसके पक्ष और विपक्ष में अनेकानेक मत सामने आ रहे हैं. हाल के कुछ वर्षों में समलैंगिकता को लेकर एक आश्चर्यजनक उत्साही प्रवृत्ति देखने को मिल रही है, जिसके समर्थन में कई गैर-सरकारी संगठनों सहित तमाम समुदाय व कुछ उदार कहे जाने वाले व्यक्ति खड़े हो रहे हैं. समलैंगिकों के हितों में आवाज बुलंद करने वाली “नाज फाउंडेशन” नामक संस्था तो बाकायदा समलैंगिकों के अधिकारों और समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करवाने के लिए कानूनी लड़ाई लड़ रही है और उसे आंशिक रूप से सफलता भी मिल चुकी है.

नाज फाउंडेशन की याचिका पर वर्ष 2010 में दिल्ली उच्च न्यायालय का फ़ैसला आया कि यदि दो वयस्क आपसी सहमति से समलैंगिक रिश्ता बनाते हैं तो वह सेक्शन 377 आईपीसी के अर्न्तगत अपराध नहीं होगा. बाद में उच्चतम न्यायालय ने भी धारा 377 के कुछ प्रावधानों को रद्द करने वाले दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय पर रोक लगाने से इनकार कर दिया. परन्तु गौर करने वाला पहलू यह है कि न तो दिल्ली उच्च न्यायालय ने और न ही उच्चतम न्यायालय ने समलैंगिक विवाहों या विवाहेत्तर समलैंगिक संबंधों को विधिमान्यता दी है और इस मामले पर अभी उच्चतम न्यायालय में विचार चल रहा है.

परन्तु समलैंगिकता के समर्थकों ने जिस तरह का उन्माद, जश्न और उत्सव पूरे देश में मनाया, गे-प्राइड परेडें निकालीं, वह कई बातों पर सोचने के लिए विवश करता है. समलैंगिकता के विरोधियों की चिंता यह है कि समलैंगिकता को जिस तरह रूमानी अंदाज में पेश किया जा रहा है, उससे कहीं जिसे विकार के रूप में लिया जाना चाहिए, उसे समाज सहज रूप में न ले बैठे, अन्यथा भविष्य में समाज में कई बीमारियां और कई समस्याएं खड़ी हो सकती हैं. उल्लेखनीय है किसी विषय को मुद्दा बनाने से लोगों में उसको जानने-समझने का कौतूहल एवं उत्सुकता बढ़ती है, जो कि उस बात का प्रचार करती है.

समलैंगिकता के विरोधी मानते हैं कि “समलैंगिक व्यभिचार मूल रूप से उन व्यक्तियों से संबंधित होता है जिन्होंने मनोरंजन और विलास की सारी हदें पार कर ली हों. ऐसे लोगों को किसी भी कीमत पर कुछ नया करने को चाहिए होता है. यही कारण है कि विदेशी संस्कृति में समलैंगिक व्यवहार आम चलन में मौजूद है. समलैंगिकता पश्चिमी रीति-रिवाजों में इस तरह समाहित है कि वहॉ पर इसे सहज रूप से स्वीकार किया जाने लगा है. पश्चिमी देशों के तमाम राष्ट्राध्यक्ष, नौकरशाह, अभिनेता, अभिनेत्रियों सहित व्यापार जगत की बड़ी हस्तियां समलैंगिकता नामक उन्मुक्त पाशविक व्यभिचार में लिप्त पाई जाती हैं. किंतु भारत के संदर्भ में ऐसी स्थिति की कल्पना करना भी भयावह और खतरनाक है.”

उपरोक्त को देखते हुए समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी में रखने या इसे केवल मानसिक विकृति और बीमारी के रूप में परिभाषित कर सुधारात्मक या दंडात्मक कार्यवाही के औचित्य पर विचार विमर्श को दिशा दी जा सके, इस संबंध में कुछ बेहद संवेदनशील और अनिवार्य प्रश्न निम्नलिखित हैं:

1. आप की नजर में समलैंगिकता एक अपराध है या मानसिक विकृति व बीमारी?
2. क्या समलैंगिकता के उन्मूलन के लिए कठोर दंड की व्यवस्था की जानी चाहिए?
3. क्या समलैंगिकता को बीमारी व मानसिक विकृति मानकर उपचारात्मक कार्यवाही की जानी चाहिए?
4. क्या समलैंगिकता को सामाजिक मान्यता मिलनी चाहिए?
5. समलैंगिकता को समाज पर थोपकर, स्वीकार्य कराकर समलैंगिकता के पैरोकार कौन-सी सामाजिक जागरूकता लाना चाहते हैं?

Sabhar-जागरण जंक्शन

महिला सशक्तीकरण – वाकई उद्धार या महज ड्रामा

भारत में महिलाओं की स्थिति में गत कुछ अरसे से बदलाव आया है. आधुनिक उदारीकृत अर्थव्यवस्था व बदली सामाजिक स्थितियों ने निश्चित रूप से महिलाओं को सशक्त होने का शानदार अवसर मुहैया कराया है. वे अब केवल गृहणी या घरेलू कामों के दायरे में सीमित नहीं हैं बल्कि व्यापार-उद्योग जगत, राजनीति व समाज में अपनी मुखर उपस्थिति दर्ज करा रही हैं. समाज के ताने-बाने में उनकी स्थिति अब अबला से सबला की ओर रूपांतरित हो रही है और वे अब निर्णय में बराबर की भागीदारी निभा रही हैं.

महिलाओं के राजनीतिक, आर्थिक सशक्तीकरण ने उनके सामाजिक सशक्तीकरण में खासा योगदान दिया है. भारतीय संविधान की अपेक्षाओं के अनुरूप महिलाएं मुख्यधारा में मौजूद हैं और देश को विकास की नई ऊंचाइयों पर ले जाने के लिए कृतसंकल्पित भी हैं.

किंतु समाजवेत्ताओं और राजनीतिक दर्शन के अध्येताओं की राय, महिला सशक्तीकरण की दिशा और दशा को लेकर, नकारात्मक ज्यादा है और सकारात्मक कम. उनका मानना है कि भारत में महिला सशक्तीकरण दिशाविहीन है. वे कहते हैं, “महिलाओं की बेहतरी के लिए सरकारी प्रयासों की स्थिति संतोषजनक नहीं है और विकास का वास्तविक लाभ केवल कुछ विशेष वर्गों तक सीमित है. गैर-सरकारी संगठनों समेत नारी हित में संलग्न सभी संस्थाओं के अपने निहित स्वार्थ महिला सशक्तीकरण की राह को भटकाकर भ्रम पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं और यही कारण है कि महिलाएं विकास और उन्नति के सही अर्थ को समझने की बजाय उसमें उलझी हुई ज्यादा प्रतीत हो रही है.”

समाज शास्त्रियों और अन्य जानकारों ने इस ओर ध्यान दिलाते हुए चिंता व्यक्त की है और कहा है कि वर्तमान में महिला सशक्तीकरण का मामला केवल आर्थिक सशक्तीकरण और राजनीतिक अधिकारों की प्राप्ति तक सीमित रह गया है जबकि इसका क्षेत्र कहीं अधिक व्यापक और सुचिंतित होना चाहिए था.

भारत में महिला सशक्तीकरण की खोखली वाहवाही के बीच स्त्री हितचिंतकों के नकारात्मक विचार बहस की बड़ी गुंजाइश को जन्म देते हैं. ऐसे में हमारे सामने कुछ महत्वपूर्ण सवाल उठ खड़े हुए हैं जिनका उत्तर तलाशा जाना समय की मांग है, यथा:

1. भारत में महिला सशक्तीकरण की वर्तमान दिशा और दशा कैसी है?
2. क्या भारत में महिला सशक्तीकरण के नाम पर दिखावा ज्यादा है?
3. क्या महिलाओं के विकास और सशक्तीकरण के नाम पर उसके शोषण की नई पृष्ठभूमि तैयार की जा रही है?
4. क्या महिलाओं के आर्थिक-राजनीतिक सशक्तीकरण के दावों के बीच महिलाओं के पूर्ण सशक्तीकरण की जमीन तैयार हो सकेगी?

Sabhar-जागरण जंक्शन

मंगलवार, 7 जून 2011

महिला स्वास्थ्य अधिकार मंच के पांच सालों का सफ़र नामा


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सोमवार, 18 अप्रैल 2011

जन लोकपाल बिल?

जन लोकपाल बिल-
देश में गहरी जड़ें जमा चुके भ्रष्टाचार को रोकने के लिए जन लोकपाल बिल लाने की मांग करते हुए अन्ना हजारे ने मंगलवार को आमरण अनशन । जंतर - मंतर पर सामाजिक कार्यकर्ता हजारे को सपोर्ट करने हजारों लोग जुटे। आइए जानते हैं जन लोकपाल बिल के बारे में...
- इस कानून के तहत केंद्र में लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्त का गठन होगा।
-यह संस्था इलेक्शन कमिशन और सुप्रीम कोर्ट की तरह सरकार से स्वतंत्र होगी।
- किसी भी मुकदमे की जांच एक साल के भीतर पूरी होगी। ट्रायल अगले एक साल में पूरा होगा।
- भ्रष्ट नेता, अधिकारी या जज को 2 साल के भीतर जेल भेजा जाएगा।
- भ्रष्टाचार की वजह से सरकार को जो नुकसान हुआ है अपराध साबित होने पर उसे दोषी से वसूला जाएगा।
- अगर किसी नागरिक का काम तय समय में नहीं होता तो लोकपाल दोषी अफसर पर जुर्माना लगाएगा जो शिकायतकर्ता को मुआवजे के तौर पर मिलेगा।
- लोकपाल के सदस्यों का चयन जज, नागरिक और संवैधानिक संस्थाएं मिलकर करेंगी। नेताओं का कोई हस्तक्षेप नहीं होगा।
- लोकपाल/ लोक आयुक्तों का काम पूरी तरह पारदर्शी होगा। लोकपाल के किसी भी कर्मचारी के खिलाफ शिकायत आने पर उसकी जांच 2 महीने में पूरी कर उसे बर्खास्त कर दिया जाएगा।
- सीवीसी, विजिलेंस विभाग और सीबीआई के ऐंटि-करप्शन विभाग का लोकपाल में विलय हो जाएगा।
- लोकपाल को किसी जज, नेता या अफसर के खिलाफ जांच करने और मुकदमा चलाने के लिए पूरी शक्ति और व्यवस्था होगी।
-जस्टिस संतोष हेगड़े, प्रशांत भूषण, सामाजिक कार्यकर्ता अरविंद केजरीवाल ने यह बिल जनता के साथ विचार विमर्श के बाद तैयार किया है। 

न्यायाधीश संतोष हेगड़े, प्रशांत भूषण और अरविंद केजरीवाल द्वारा बनाया गया यह विधेयक लोगों द्वारा वेबसाइट पर दी गई प्रतिक्रिया और जनता के साथ विचार-विमर्श के बाद तैयार किया गया है। इस बिल को शांति भूषण, जेएम लिंग्दोह, किरन बेदी, अन्ना हजारे आदि का समर्थन प्राप्त है। इस बिल की प्रति प्रधानमंत्री एवं सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को एक दिसम्बर को भेजा गया था।
1. इस कानून के अंतर्गत, केंद्र में लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्त का गठन होगा।
2. यह संस्था निर्वाचन आयोग और सुप्रीम कोर्ट की तरह सरकार से स्वतंत्र होगी। कोई भी नेता या सरकारी अधिकारी जांच की प्रक्रिया को प्रभावित नहीं कर पाएगा।
3. भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कई सालों तक मुकदमे लम्बित नहीं रहेंगे। किसी भी मुकदमे की जांच एक साल के भीतर पूरी होगी। ट्रायल अगले एक साल में पूरा होगा और भ्रष्ट नेता, अधिकारी या न्यायाधीश को दो साल के भीतर जेल भेजा जाएगा।
4. अपराध सिद्ध होने पर भ्रष्टाचारियों द्वारा सरकार को हुए घाटे को वसूल किया जाएगा।
5. यह आम नागरिक की कैसे मदद करेगा
यदि किसी नागरिक का काम तय समय सीमा में नहीं होता, तो लोकपाल जिम्मेदार अधिकारी पर जुर्माना लगाएगा और वह जुर्माना शिकायतकर्ता को मुआवजे के रूप में मिलेगा।
6. अगर आपका राशन कार्ड, मतदाता पहचान पत्र, पासपोर्ट आदि तय समय सीमा के भीतर नहीं बनता है या पुलिस आपकी शिकायत दर्ज नहीं करती तो आप इसकी शिकायत लोकपाल से कर सकते हैं और उसे यह काम एक महीने के भीतर कराना होगा। आप किसी भी प्रकार के भ्रष्टाचार की शिकायत लोकपाल से कर सकते हैं जैसे सरकारी राशन की कालाबाजारी, सड़क बनाने में गुणवत्ता की अनदेखी, पंचायत निधि का दुरुपयोग। लोकपाल को इसकी जांच एक साल के भीतर पूरी करनी होगी। सुनवाई अगले एक साल में पूरी होगी और दोषी को दो साल के भीतर जेल भेजा जाएगा।
7. क्या सरकार भ्रष्ट और कमजोर लोगों को लोकपाल का सदस्य नहीं बनाना चाहेगी?
ये मुमकिन नहीं है क्योंकि लोकपाल के सदस्यों का चयन न्यायाधीशों, नागरिकों और संवैधानिक संस्थानों द्वारा किया जाएगा न कि नेताओं द्वारा। इनकी नियुक्ति पारदर्शी तरीके से और जनता की भागीदारी से होगी।
8. अगर लोकपाल में काम करने वाले अधिकारी भ्रष्ट पाए गए तो?
लोकपाल/लोकायुक्तों का कामकाज पूरी तरह पारदर्शी होगा। लोकपाल के किसी भी कर्मचारी के खिलाफ शिकायत आने पर उसकी जांच अधिकतम दो महीने में पूरी कर उसे बर्खास्त कर दिया जाएगा।
9. मौजूदा भ्रष्टाचार निरोधक संस्थानों का क्या होगा?
सीवीसी, विजिलेंस विभाग, सीबीआई की भ्रष्टाचार निरोधक विभाग (अंटी कारप्शन डिपार्टमेंट) का लोकपाल में विलय कर दिया जाएगा। लोकपाल को किसी न्यायाधीश, नेता या अधिकारी के खिलाफ जांच करने व मुकदमा चलाने के लिए पूर्ण शक्ति और व्यवस्था भी होगी।

जनता द्वारा तैयार जनता के लिए बिल

पहली बार एक विधेयक का प्रस्ताव देश के नागरिक समाज की ओर से संसद में विचार करने के लिए दिया गया है। इस विधेयक में सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों, चाहे वह प्रधानमंत्री, सुप्रीमकोर्ट के न्यायाधीश या फिर अफसरशाही हो, के खिलाफ लगे भ्रष्टाचार के आरोपों की न केवल निष्पक्ष जांच करने की ताकत है बल्कि उन्हें दंडित भी करने की क्षमता है। इसमें लूटखसोट द्वारा अर्जित धन भी जनता को वापस दिलाने का प्रावधान किया गया है। इसलिए इसका महत्व लगभग संविधान के बराबर है। - स्वामी अग्निवेश

हांगकांग में 1974 में जन लोकपाल जैसा कानून बनाया गया था, जिससे वहां से भ्रष्टाचार समाप्त करने में कामयाबी मिली। अगर यह कानून बना दिया गया तो यहां पर भी भ्रष्टाचार को नष्ट किया जा सकता है। पारित कराने के लिए जो राजनीतिक दल इस विधेयक का समर्थन करेंगे, वे भ्रष्टाचार का खात्मा चाहते हैं और जो इसका विरोध करेंगे उनकी मंशा कुछ और ही है। – शांति भूषण

जो बिल सरकार ने तैयार किया है उसका कोई औचित्य नहीं है। उस कानून में लोकपाल को कोई अधिकार नहीं प्राप्त है। अगर लोकपाल को कुछ अधिकार देना है तो उसमें जन लोकपाल विधेयक के प्रावधानों को शामिल किया जाए। – एन संतोष हेगड़े

अरविंद केजरीवाल, प्रशांत भूषण और संतोष हेगड़े द्वारा जन लोकपाल विधेयक का मूल आधार तैयार किया गया। बाद में इस विधेयक पर अलग-अलग क्षेत्रों से जुड़े विद्वानों और गण्यमान्य लोगों की राय को भी इसमें शामिल किया गया। इसके अलावा देश भर में विभिन्न मंचों पर जनता की राय को भी इस विधेयक में जगह दी गई। इस तरह से यह जनता के द्वारा तैयार किया गया विधेयक बन चुका है। आइए, जानते हैं इस विधेयक के मूल स्वरूप के सूत्रधारों के बारे में।

अरविंद केजरीवाल: 43 साल के केजरीवाल आइआइटी खड़गपुर से मैकेनिकल इंजीनियरिंग में स्नातक हैं । 1992 में भारतीय राजस्व सेवा में आयकर आयुक्त कार्यालय में तैनात रहे। भारतीय राजस्व सेवा में साल 2000 तक काम करने के बाद सरकारी विभागों में घूसखोरी के खिलाफ लड़ाई के लिए परिवर्तन नामक संस्था का गठन किया। इस संस्था ने आयकर और बिजली जैसे सरकारी विभागों में लोगों की शिकायतों को दूर करने में बहुत मदद की। साल 2001 से यह संस्था सूचना के अधिकार और इसकेउपयोग करने के तरीके को लेकर जनता को जागरूक कर रही है। इसके प्रयासों से ही सूचना का अधिकार कानून आज आम आदमी की लाठी बनकर भ्रष्टाचार से न केवल लड़ रहा है बल्कि सरकार की जवाबदेही भी तय कर रहा है। सूचना के अधिकार पर किए गए काम पर अगस्त 2006 में अरविंद केजरीवाल को रमन मैगसेसे पुरस्कार से नवाजा गया.

प्रशांत भूषण: देश के पूर्व कानून मंत्री और वरिष्ठ अधिवक्ता शांति भूषण के बेटे प्रशांत भूषण भी देश के जाने-माने अधिवक्ता हैं । न्यायिक सत्यनिष्ठा और गुणवत्ता की साख बचाने के लिए 55 साल के प्रशांत भूषण ने समय-समय पर अहम मसलों को उठाया है। इन्होंने ही देश के मुख्य न्यायाधीश की बेंच को पीएफ घोटाले की सुनवाई ओपेन कोर्ट में करने पर विवश किया। बेंच इस मामले की सुनवाई चेम्बर्स में करना चाहती थी। न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी लड़ाई के लिए दुनिया भर में चर्चित प्रशांत भूषण जजों की नियुक्त प्रक्रिया में पारदर्शिता लाने की भी लड़ाई लड़ रहे हैं ।

एन संतोष हेगड़े: 71 साल के संतोष हेगड़े पूर्व लोकसभा अध्यक्ष केएस हेगड़े के पुत्र हैं । फरवरी 1984 में कर्नाटक राज्य के एडवोकेट जनरल बनाए गए और अगस्त 1988 तक इस पद पर आसीन रहे। दिसंबर 1989 से नवंबर 1990 तक इन्होंने देश के एडिशनल सॉलीसिटर जनरल की जिम्मेदारी निभाई। 25 अप्रैल 1998 को ये फिर से सॉलीसिटर जनरल ऑफ इंडिया नियुक्त किए गए। आठ जनवरी 1999 को एन संतोष हेगड़े सुप्रीमकोर्ट के न्यायाधीश बने। जून 2005 में वे इस पद से सेवानिवृत्त हुए। तीन अगस्त 2006 को पांच साल के कार्यकाल के लिए इनको कर्नाटक का लोकायुक्त बनाया गया।

जेएम लिंगदोह: देश के उत्तरी राज्य मेघालय के खासी जनजाति से संबंध रखने वाले जेम्स माइकेल लिंगदोह एक जिला जज के बेटे हैं । दिल्ली से अपनी शिक्षा-दीक्षा पूरी करने के बाद महज 22 साल की आयु में वह आइएएस बने। शीघ्र ही वे अपने पेशे के प्रति ईमानदारी बरतने और सच्चाई को लेकर अडिग रहने वालों में शुमार किए जाने लगे। इन्होंने राजनेताओं और स्थानीय अमीरों की जगह दबे-कुचले और असहाय तबके को प्रमुखता दी। 1997 में ये देश के चुनाव आयुक्त बने। 14 जून 2001 को इन्हें देश का मुख्य चुनाव आयुक्त बनाया गया। सात फरवरी 2004 तक इन्होंने कई प्रदेशों में सफल चुनाव कराकर अपनी सफलता का परिचय दिया। साल 2002 में जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के सफल आयोजन से वहां लोगों ने निडर होकर अपने मतों का प्रयोग किया। गुजरात दंगों के तुरंत बाद वहां चुनाव कराने की मांग को इन्होंने खारिज कर दिया। दंगों से विस्थापित परिवारों और वहां व्याप्त डर के माहौल का हवाला देते हुए अंत तक ये अपने निर्णय पर अडिग रहे। 2003 में सरकारी सेवा क्षेत्र में इनके काम के लिए रमन मैगसेसे पुरस्कार से नवाजा गया।

स्वामी अग्निवेश: 72 साल के स्वामी अग्निवेश ख्यातिप्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता हैं । 1977 में ये हरियाणा विधानसभा के सदस्य बने। 1979 से 1982 तक ये वहां के शिक्षा मंत्री भी रहे। 1981 में स्थापित अपने संगठन बांडेड लेबर लिबरेशन फ्रंट द्वारा इन्होंने बंधुआ मजदूरी को खत्म करने का अभियान चलाया। जेनेवा स्थित संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में इन्होंने दासता और बंधुआ मजदूरी के आधुनिक स्वरूपों का मसला जोरशोर से उठाया। चार सितंबर 1987 को राजस्थान के देवराला में हुए रूपकुंवर सती कांड पर इन्होंने उस गांव के बाहर धरना शुरू किया। बाद में इनके प्रयासों से ही इस कुप्रथा को रोकने का कानून संभव हो सका। हाल में स्वामी अग्निवेश शांति बहाली के लिए नक्सलियों और सरकार के बीच मध्यस्थ भी बने।

खास है जन लोकपाल विधेयक

• अध्यक्ष समेत दस सदस्यों वाली एक लोकपाल संस्था होनी चाहिए.
• भ्रष्टाचार के मामलों की जांच करने वाली सीबीआइ के हिस्से को इस लोकपाल में शामिल कर दिया जाना चाहिए.
• सीवीसी और विभिन्न विभागों में कार्यरत विजिलेंस विंग्स का लोकपाल में विलय कर दिया जाना चाहिए.
• लोकपाल सरकार से एकदम स्वतंत्र होगा.
• नौकरशाह, राजनेता और जजों पर इनका अधिकार क्षेत्र होगा.
• बगैर किसी एजेंसी की अनुमति के ही कोई जांच शुरू करने का इसे अधिकार होगा.
• जनता को प्रमुख रूप से सरकारी कार्यालयों में रिश्वत मांगने की समस्या से गुजरना पड़ता है। लोकपाल एक.
• अपीलीय प्राधिकरण और निरीक्षक निकाय के तौर पर केंद्र सरकार के सभी कार्यालयों में कार्रवाई कर सकेगा.
• विसलब्लोअर को संरक्षण प्रदान करेगा.
• लोकपाल के सदस्यों और अध्यक्ष का चुनाव पारदर्शी तरीके से किया जाना चाहिए.
• लोकपाल के किसी अधिकारी के खिलाफ यदि कोई शिकायत होती है तो उसकी जांच पारदर्शी तरीके से एक महीने की भीतर होनी चाहिए.


जन लोकपाल की खूबियां और सरकारी प्रारूप में खामियां

विषय: राजनेता, नौकरशाह और न्यायपालिका पर अधिकार क्षेत्र
सरकारी विधेयक: सीवीसी का अधिकार क्षेत्र नौकरशाहों और लोकपाल का राजनेताओं
पर। न्यायपालिका पर कोई कानून नहीं
जन लोकपाल: राजनेता, नौकरशाह व न्यायपालिका दायरे में
क्यों?: भ्रष्टाचार राजनेता और नौकरशाहों की मिलीभगत से ही होता है। ऐसे में सीवीसी और लोकपाल को अलग अधिकार क्षेत्र देने से इन मामलों को व्यवहारिक दृष्टि से निपटाने में दिक्कतें पेश आएंगी। यदि किसी केस में दोनों संस्थाओं के अलग निष्कर्ष निकलते हैं तो कोर्ट में आरोपी के बचने की आशंका ज्यादा होगी.

विषय: लोकपाल की शक्तियां
सरकारी विधेयक: सलाहकारी निकाय होना चाहिए
जन लोकपाल: किसी की अनुमति के बगैर ही जांच प्रक्रिया शुरू करने का अधिकार होना चाहिए
क्यों?: सलाहकारी भूमिका में यह सीवीसी की तरह अप्रभावी होगा.

विषय: विसलब्लोअर संरक्षण
सरकारी विधेयक: इनकी सुरक्षा के लिए सरकार ने हाल में एक बिल पेश किया है जिसमें सीवीसी को सुरक्षा का उत्तरदायित्व दिया गया है.
जन लोकपाल: सीधे तौर पर इनकी सुरक्षा का प्रावधान
क्यों?: सीवीसी के पास न तो शक्तियां हैं और न ही संसाधन, जो विसलब्लोअर की सुरक्षा करे.

विषय: लोकपाल का चयन और नियुक्ति
सरकारी विधेयक: प्रमुख रूप से सत्ता पक्ष और विपक्ष के सदस्यों से बनी एक कमेटी द्वारा इनका चयन जन लोकपाल: गैर राजनीतिक व्यक्तियों की एक कमेटी द्वारा चयन
क्यों?: कोई भी राजनीतिक पार्टी हो, वह सशक्त और स्वतंत्र लोकपाल नहीं चाहती

विषय: लोकपाल की पारदर्शिता और जवाबदेही
सरकारी विधेयक: कोई प्रावधान नहीं
जन लोकपाल: कार्यप्रणाली पारदर्शी हो। किसी लोकपाल कर्मचारी के खिलाफ शिकयत का निस्तारण एक महीने के भीतर होना चाहिए और दोषी पाए जाने पर उसको बर्खास्त किया जाना चाहिए.

विषय: भ्रष्टाचार मामलों में सरकार को हुए धन की क्षतिपूर्ति
सरकारी विधेयक: कोई प्रावधान नहीं
जन लोकपाल: भ्रष्टाचार के कारण सरकार की हुई किसी भी मात्रा की आर्थिक क्षति का आकलन ट्रायल कोर्ट करेगी और इसकी वसूली दोषियों से की जाएगी


रविवार, 17 अप्रैल 2011

यौन शिक्षा

यौन शिक्षा पर इतना बवाल क्‍यों

डॉ0 संजय सिंह, महात्‍मा गांधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी में समाजकार्य विभाग में रीडर हैं। पढाने के साथ-साथ सामाजिक आन्‍दोलन में आपकी सक्रिय भागीदारी रहती है। पिछले दो महीनों से यौन शिक्षा को लेकर काफी बवाल राज्‍य के अलावा देश भर में मचा हुआ था, और कई राज्‍यों में भारी विरोध के चलते लागू नहीं हो पाया। सबसे चौकाने वाली व महत्‍वपूर्ण देखने वाली जो बात है, शिक्षक संघ यौन शिक्षा के विरोध में खुलकर सामने आया और यहां तक उन्‍होंने इन किताबों को जलाकर अपना विरोध भी दर्ज किया। यौन शिक्षा को लेकर उठे बवाल व शिक्षक से लेकर आम जन मानस के लोगों की मानसिकता को लेकर डॉ0 संजय यहा पर अपनी बात व राय सबके साथ बांट रहे हैं।

यौन शिक्षा को लेकर आम लोगों, धार्मिक नेताओं, राजनेताओं, शिक्षकों एवं राज्य सरकारों में जो भ्रम की स्थिति बनी हुई है या ऐसा कह सकते है कि '' सॉप - छछुंदर'' की स्थिति बनी हुई है। राज्य सरकारें एक कदम आगे बढ़ाती हैं तो दो कदम पीछे खींचती हैं। कोई इसे आवश्‍यक तो कोई अनावश्‍यक बताता है। तो कोई इसे भारत की बिरासत के विरुध्द बहुराष्ट्रीय कम्पनीयों का अभियान बताता है।
लेकिन वास्तविकता - ''कौवा कान ले गया'' जैसी है।
इसे सम्पूर्ण सन्दर्भ में समझने की कोशिश न कर बिरोध जता कर लोग अपनी पीठ थपथपवाकर भारतीय संस्कृति के रक्षकों की पंक्ति में सम्मिलित होने की थोथी कोशिश कर रहे है । जबकि उनके पास इस बात का कोई जबाब नही है कि एच. आई. वी. / एड्स जैसी बिमारी भ्रमात्मक यौनिकता, लिंगभेद, यौन उत्पीड़न का क्या कारगर उपाय है? क्या मात्र नैतिकता एवं ब्रह्मचर्य का पाठ पढ़ाने से उपरोक्त को रोका जा सकता है? यदि ऐसा होता तो धार्मिक स्थलों पर यौनाचार की घटनाएं नहीं होनी चाहिए लेकिन घटनाएं होती हैं और उन्हीं द्वारा जो नैतिकता का पाठ पढ़ाते हैं।
यथार्थ यह है कि लोगों में इतना नैतिक बल नहीं बचा कि वे इस विषय को पूरी संवेदनशीलता एवं गंभीरता से पढ़ सके या विद्यार्थियों को पढ़ा सकें। आखिर किसके भरोसे किशोर अथवा युवा यौन शिक्षा ग्रहण करें? नीम - हकीमों के भरोसे, अश्‍लील साहित्यों, अथवा अधकचरी जानकारी रखने वाले साथियों से। क्या यह उपयुक्त होगा? आखिर कब तक हम सच्चाई को नकारते रहेंगे? कब तक यौन एवं यौनिकता को गोपनीय बनाये रखेंगे? क्या यह सत्य नही है कि प्रत्येक मनुष्य जन्म से मृत्युपर्यन्त एक यौनिक प्राणी होता है एवं अपने यौन के आधार पर ही आचरण करता है। प्रत्येक मनुष्य प्रेम, निकटता, लगाव एवं यौनिक उत्तेजना की भावना का अनुभव करने की क्षमता के साथ जन्म लेता है और यह विश्‍वास करता है कि यह योग्यता जीवन भर बनी रहे। लेकिन विभिन्न कारकों जैसे उम्र, लैंगिक भूमिका, लालन-पालन, शिक्षा. सामाजिक पर्यावरण, आत्म -सम्मान, अपेक्षाएं, एवं स्वाथ्य की स्थिति (शारीरिक एवं मानसिक ) के अनुसार हमारी यौनिकता, आवश्‍यकताओं तथा प्रेम को अभिव्यक्त करने के तरीकों में अन्तर होता है। यौनिकता बहुत गहराई से सामाजिक लिंगभेद, सामाजिक लिंगभेद सम्बन्धी व्यवस्था एवं लैंगिक भूमिकाओं से जुड़ी होती हैं। लिंगभेद सम्बन्धी व्यवस्था कितनी समानतावादी अथवा विभेदकारी है, यौनिकता तथा इसकी अभिव्यक्ति की सामाजिक स्वीकृति द्वारा बड़े अच्छे से समझा जा सकता है।
लैंगिकता एवं यौनिकता दोनों ही हमारी पहचान के हिस्से हैं। तथा यह समाज एवं संस्कृति द्वारा निर्मित की जाती है जो कि अभिभावकों, भाई- बहनों, मित्र- समूहों, शिक्षकों, धार्मिक ग्रन्थों एवं अन्य साहित्यों द्वारा सिखाई जाती हैं। प्रश्‍न उठता है सिखाने की पद्वति, विषय वस्तु, एवं उपागम पर । क्या जो यौन शिक्षा परम्परागत रुप से सिखाई जाती है वह उपयुक्त है? क्या वह सभी को उपलब्ध होता है? यह एक व्यापक विष्लेषण का विषय है। यदि वह उपयुक्त होता तो इतनी भारी मात्रा में यौन उत्तेजना बढ़ाने वाली दवाइयों की विक्री नहीं होती, जगह-जगह गली-मुहल्लों में मर्दाना ताकत बढ़ाना का दावा करने वाली नीम-हकीमों की फौज नहीं खड़ी होती। इतनी मात्रा में युवा दिग्भ्रमित न होते, एच. आई. वी. / एड्स का इतना प्रसार न होता और न ही इतनी मात्रा में यौन उत्पीड़न, बलात्कार एवं यौन हिंसाएँ होती।
अत: हमें स्वीकार करना होगा कि यौन शिक्षा हमारे जीवन की एक अनिवार्यता है। यह तथ्यों की जानकारी मात्र नही है। यह एक संवेदनशील विषय है तथा ऐसे उपागमों द्वारा शिक्षार्थी को शिक्षा दी जाए कि वह विषय को गम्भीरता से समझ सके। शिक्षक को कक्षा का वातावरण इस प्रकार निर्मित करना पड़ेगा कि विद्यार्थी इमानदारी से अपने जीवन जीने के तरीके, यौनिकता एवं प्रेम के अनुभवओं पर खुलकर चर्चा कर सकें । तभी शिक्षक उनके मूल्यो, अभिवृत्तियो एवं व्यवहार में सकारात्मक परिवर्तन ला सकेगें । एवं विद्याथी जीवन में स्वस्थ निर्णय लेने योग्य हो सकेगा । इससे उनका आत्म सम्मान भी बढ़ता है क्योकि यौन शिक्षा पहचान एवं मानवता से सम्बंधित है ।
सहभागी उपागमो एवं तकनीकों जैसे वैयक्तिक चर्चा, मूल्य स्पष्टीकरण के खेल, सामाजिक लिंगभेद पर समूह चर्चा, एवं छोटे- छोटे समूहो में अनुभवो का बांटना इत्यादि का प्रयोग कर हम शिक्षण को ग्राहय बना सकते है, एवं यह एक थोपा गया विषय नही लगेगा।
दरअसल वास्तविक तथ्य एवं मूल्य दो ऐसे स्तम्भ हैं जिस पर यौन शिक्षा निर्भर करती है। इसके लिए आवश्‍यक है कि शिक्षक स्वयं की यौनिकता, इससे जुड़े मूल्यों विषेषकर किशोरों की यौनिकता सम्बन्धी मूल्यों पर खुल कर चर्चा करें। यदि शिक्षक ऐसा करते है तो यह उन्हें प्रभावशाली यौन शिक्षा के पॉच सूत्रों को समझने में मदद करेगा। वह है- यौनिकता के सम्बन्ध में सकारात्मक सोच, स्वीकृति का सिद्वान्‍त वास्तविकता को स्वीकार करना, अर्न्तक्रियात्मक उपागम एवं अनिर्णायक अभिवृत्ति।
यौन शिक्षा निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है केवल युवाओं के लिए ही नहीं बल्कि शिक्षकों, नीतिनिर्माताओं, प्रशिक्षकों एवं सहर्जकत्ताओं के लिए भी। अत: भली प्रकार यौन शिक्षा प्रदान करने, एवं इसके अनुश्रवण के लिए निम्न कदम महत्वपूर्ण है-
- नीति- निर्माताओं के लिए संवेदनशीलता कार्यशालाओं का आयोजन जो कि प्रक्रिया उन्मुखी हो ताकि रणनीतियों एवं नीतियों के निर्माण की प्रक्रिया में सहायता प्रदान कर सके।
- शिक्षकों एवं प्रशिक्षकों को यौनिकता पर आधारभूत प्रषिक्षण ।
- प्रशिक्षकों का प्रशिक्षण।
- स्कूलों में कार्यरत शिक्षकों का इन-सर्विस प्रशिक्षण

आप डॉ0 संजय सिंह को सीधे इस पते पर भी लिखे सकते हैं sanjaysinghdr@sifymail.com

मर्दानगी

ये कैसी मुहब्‍बत...........

बात दिल्‍ली शहर की है, देश की राजधानी, जो विकास के मामले में अग्रणी है। लेकिन महिला व पुरूष के मामले में उस शहर की सोच भी देश के बाकि हिस्‍सों की तरह ही है। 13 अगस्‍त को हुई एक घटना ने दिल को हिला कर रख दिया और इस घटना ने मर्दवादी मानसिकता को फिर उजागर किया।
चांदनी नाम की एक लड्की को उसके पडौस में ही रहने वाले दो लड्कों ने जिंदा जला डाला। 16 साल की चांदनी अपनी मां के साथ रहती थी। वह अभी कक्षा 8 में पढती थी। उसकी जिन्‍दगी सामान्‍य चल रही थी, लेकिन कुछ समय से नौशाद नाम का लड्का उसे आये दिन परेशान करता था। नौशाद उसके पडौस में ही रहता था। एक दिन जब नौशाद ने चांदनी का हाथ पकड् लिया और उससे कहना लगा कि वह उससे प्‍यार करता है, इस पर चांदनी ने इंकार किया और कहा कि मैं तुम्‍हे से प्‍यार नहीं करती।
चांदनी का इंकार नौशाद को बर्दाश्‍त नहीं हुआ और 13 अगस्‍त को अपना बदला लेने के लिए अपने दोस्‍त के साथ चांदनी के घर घुस गया, उस वक्‍त चांदनी अकेली थी। चांदनी पर कैरोसीन छिडक कर आग लगा दी। चांदनी को सफदरगंज अस्‍पताल में भर्ती कराया गया, जहां उसने दम तोड् दिया।
इस घटना ने समाज के संवदेनशील लोगों को शर्मसार किया। मैं बहुत आहत हूं, यह घटना मर्दवादी सोच को उजागर करती है कि एक पुरूष होने के नाते उसे लड्की कैसे इंकार कर सकती है, अस्‍वीकारर्यता को स्‍वीकार न करना, उसे अपना अहम बना लेना, लड्की पर अपना हक जमाना, वह मेरी नहीं तो किसी और की भी नहीं, इसलिए उसे सबक सिखाना, अगर वह मेरी नहीं तो उसे जिंदा रहने का कोई अधिकार नहीं आदि, आदि।
इस क्रूर मानसिकता के चलते या तो लड्की को मार दिया जाता है, उसका बलात्‍कार किया जाता है या उस पर तेजाब डाल दिया जाता है। मैं यहां पर उस मानसिकता का उठाना चाहता हूं जो लड्कों के अन्‍दर बस रही है, पनप रही है। क्‍‍या जिसे प्‍यार करते हैं, उसके साथ हम ऐसा कर सकते हैं। बात तब और भी ज्‍यादा गंभीर हो जाती है, जब आप खुद ही मान बैठते हैं कि मैं उससे प्‍यार करता हूं और वो मेरी है। किसी पर जबरन हक जमाना क्‍या न्‍यायोचित है, क्‍या केवल हमारी ही भावनाएं है, जो हम चाहेंगे वो ही होगा।
बहुत बहस का विषय है। इस पर व्‍यापक बहस की जरूरत है।
मैंने इस विषय को बहस छेड्ने के लिए उठाया है, इस‍लिए आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार

जेण्‍डर समानता

आसान नहीं है राह जेण्‍डर समानता की

‘’ये हुई ना मर्दों वाली बात’’ वाली डॉक्‍यूमेंटरी दिखाने के बाद अक्‍सर ये सवाल उठता है कि ल‍ड्कियों के लिए किस तरह का पुरूष ‘आईडियल’ है। तो अक्‍सर ये ही सुनने को मिलता है। हमें तो हटटा-कटटा, दमदार, सुडौल, अच्‍छा खासा कमाने वाला लडका ही चाहिए। इस तरह के विचार सुनने को आते हैं, लड्कियों से। मेरा यह अनुभव विश्‍ववि़द्यालय में फिल्‍म स्‍क्रीनिंग करते हुआ है।
मैसवा के साथी पुरूष व लडके जो काफी लम्‍बे समय से मैसवा की गतिविधियों में शामिल हैं कि प्रतिक्रिया अक्‍सर होती है है कि रवि भाई हमारे लिए तो कोई जगह ही नहीं है। लड्कियां जो सोचती है, उस खांचे में हम तो फिट होते ही नहीं हैं। लड्के कहते हैं कि अब हम जेण्‍डर समानता की बात करते हैं और आसपास व घरों में भी सभी तरह के कामों में मदद करते हैं जिसकी वजह से बाकि लडकों के मजाक के पात्र बनाते हैं, और कई बार तो लड्कियों के भी मजाक के पात्र बनते हैं। बडी उहापोह की स्थिति रहती है।

मैं यहां पर समझने व लिखने की कोशिश कर रहा हूं कि आखिर ऐसा क्‍यों होता है कि एक तरु तो हम जेण्‍डर संवदेनशील पुरूष चाहते हैं, लेकिन उसे अपने जीवन के साथ नहीं जोड पाते। असल जिन्‍दगी में हमें उसी तरह मर्दवादी लड्का या पुरूष चाहिए होता है। यही भाव लड्कों में भी है, दोस्‍ती के दायरे में हमें हंसी मजाक करने वाली, बोल्‍ड लडकी ही चाहिए होती है, लेकिन असल जिन्‍दगी में हम फिर सामाजिक ढाचे में फिट लड्की ही चाहते हैं। लड्कों व लड्कियों का सा‍माजिकरण समाजि की अपेक्षाओं के आधार पर एक तरह के ढांचे में हुआ है। जिसमें लडकों के लिए कुछ अलग मानक हैं, उन्‍हें अलग तरह के दिखने का है, ठीक लड़कियों के लिए भी अलग मानक है, जिसमें उन्‍हें अलग तरह का दिखना है। ये मानक ही आदर्श हैं, इस तरह का भाव बचपन से ही हमारे अंदर डाल दिया जाता हैं। अगर इस से इतर कुछ भी हुआ तो समाज को बहुत अजीब लगता है और अक्‍सर उसका कई स्‍वरूपों में विरोध भी होता है। जिसकी वजह से हर किसी को समाज द्वारा तय किये गये मानकों पर ही चलना ज्‍यादा सुगम लगता है। समाज इस तरह की सोच भी पैदा कर देता है कि इन मानकों पर खरा उतरना जरूरी है वरना आपको असामान्‍य घोषित कर दिया जायेगा। आपको समाज में इस्‍तेमाल होने वाले तुच्‍छ व नीचा दिखाने वाले शब्‍दों से संबोधित किया जायेगा। ये इसलिए किया जाता है कि आप उस बदलाव में बहुत आगे न जा पाये और पुन समाज द्वारा तय मूल्‍यों पर लौट आयें, दूसरी वजह है कि दूसरे व्‍यक्ति इससे सबक लें और समाज के मूल्‍यों को ठुकराने व चुनौती देने की कोशिश न करें।
मुझे लगता है कि ऐसी स्थिति में हम दो पक्षों में बंटे रहते हैं, एक मन व दूसरा दिमाग। मन कुछ और कहता है तो दिमाग कुछ और कहता है। इस मन और दिमाग के बीच में अंतद्धंद चलता रहता है। दिमाग इसलिए हाबी रहता है क्‍योंकि वह सामाजिक न‍जरिये से सोचता है। हम सब दिमागी रूप से परम्‍परागत सोच की गुलामी को जी रहे होते हैं व संकीर्ण विचारधाराओं में जकडे हुए हैं।
यहां पर लड्कों की मानसिक स्थिति को समझने की जरूरत है क्‍यों वह इस तरह की बात कर रहा है। उसे र्स्‍पोटिंग स्स्टिम नहीं मिल रहा है। उसके मन में कई तरह के सवाल उठ रहे हैं, उनमें से एक है – आसान नहीं है राह जेण्‍डर समानता की।
साथियों इन उलझनों पर आपके जवाब आमंत्रित हैं।

महिला हिंसा

महिलाओं के मामले में हमारा समाज अभी भी आदिम युग का है

मनोज कुमार सिंह, गोरखपुर से हैं। एक मीडियाकर्मी है। आपने पूर्वांचल में भूख व गरीबी के कारण हो रही मौतों को उजागर किया, इसके साथ्-साथ महिला मुददों पर भी आप लिखते आये हैं। आप सामाजिक आन्‍दोलनों में काफी स‍क्रिय रहते हैं, चाहे वह रोजगार गारंटी हो, सूचना का अधिकार हो या महिला अधिकारों पर अभियान हो। लोकअभ्‍युदय अखबार का जेरे बहस कॉलम में रेगूलर लिखते हैं, यहां पर वे पूर्वी उ0प्र0 में लगातार बढ रही महिला हिंसा की कुछ घटनाओं का पित्रसत्‍तात्‍मक ढाचें में विश्‍लेषण कर रहे हैं।

देवरिया में एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी को मुम्बई ले जाकर वेश्‍यालय में बेच दिया। इस व्यक्ति ने तीस वर्ष पहले शादी की थी। पत्नी गांव रहती थी और वह गाजियाबाद में एक कारखाने में कार्य करता था। छह माह पहले वह गांव आया और पत्नी को गाजियाबाद ले गया। फिर उसे घुमाने के बहाने मुम्बई ले गया और वेश्‍यालय में बेच कर लौट आया। एक माह तक दुराचार का षिकार होती रही उसकी पत्नी मौका देखकर एक दिन भाग निकली और अपने मायके पहुंच कर आप बीती सुनाई। मामला पुलिस में गया और मुकदमा दर्ज किया गया।
गोरखपुर जनपद में एक परिवार के लोगों को जब पता चला कि उनकी जवान बेटी गांव के किसी लड़के से प्रेम करती थी तो उन्होने अपनी लड़की को जिन्दा जला दिया और बन्धे पर ले जाकर फेंक दिया। लड़की रात भर बंधे पर तड़फड़ाती चिल्लाती रही लेकिन उसकी मदद के लिये कोई नहीं आया। पह बंधे पर ही मर गई।
पूर्वांचल के ग्रामीण क्षेत्र की ये दो घटनाएं गांवो में महिला हिंसा की एक बानगी भर है। अगस्त माह में गोरखपुर जनपद में ग्रामीण क्षेत्र में महिला हिंसा की एक दर्जन घटनाएं मीडिया में आई। इनमें पिटाई, दुष्कर्म, दहेज हत्या, हत्या और अपहरण के मामले हैं। इनमें आधे से अधिक मामले महिला के साथ घर में हुई हिंसा या परिजनों के द्वारा की गई हिंसा के हैं। मीडिया में अधिकतर वहीं मामले आ पाते है जो पुलिस तक पहुंच जाते हैं। ज्यादातर मामले सामने नहीं आ पाते हैं। फिर भी जितने मामले आते है उससे समाज में महिला हिंसा की भयावह तस्वीर सामने आती है।
ये घटनाएं ये साबित करती है कि महिलाओं से व्यवहार के मामलें में हमारा समाज अभी भी कितना आदिम युग का है। कोई अपनी पत्नी को वेश्‍यालय में बेच रहा है तो कोई अपनी बेटी को इसलिए जला कर बंघे पर फेंक दे रहा है कि वह वयस्क होने के बाद भी कैसे किसी से प्रेम कर रही है। कोई अपने दामाद की इसलिए सरेबाजार कुल्हाड़ी मार कर हत्या कर देता है कि उसने उनकी बेटी से क्यो प्रेम विवाह किया। आमतौर पर ये घटनाएं समाज को विचलित भी नही करती क्योंकि उसे यह सब बहुत स्वाभाविक लगता है। देश महिला हिंसा की घटनाओं को रोक पाने में सक्षम नहीं हो पा रहे है। यह बहस का विषय हो सकता है कि हमारी कानून व्यवस्था क्यों महिला हिंसा को रोक पाने में कामयाब नहीं हो पा रही है। लेकिन महिला हिंसा का सबसे बड़ा कारण समाज का पितृसत्तात्मक होना है। पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं को दोयम दर्जे का समझा जाता है और माना जाता है कि वे शाशित होने के लिए ही बनी है। उन्हे गुलाम समझा जाता है यही कारण माना जाता है कि उनकी न कोई इच्छा है न कोई विचार। शिक्षित परिवारों मे पढ़ी-लिखी महिलाओं या लडकियों को बात-बात में कह दिया जाता है तुम क्या जानों, जैसे कि जानने का हक और निर्णय लेने का हक सिर्फ पुरूषों को ही है। इस मानसिकता और सोच के रहते महिलाओ को बराबरी के दर्जे पर लाना और उनके साथ भेदभाव व हिंसा को रोक पाना बहुत मुश्किल है। इसलिए इस सोच को बदलने के लिए बड़े पैमाने पर जनान्दोलन की जरूरत है। एक बड़ा जनान्दोलन ही समाज को चेतना के स्तर पर ऊंचाइयों पर ले जाता है और एक झटके से समाज को सड़ी-गली मान्यताओं , सोच व विचार से छुटकारा दिला देता है।

घरेलू हिंसा कानून

यह डर पुरूष का है या उसके पुरूषत्व का

  • घरेलू हिंसा से महिलाओं का बचाव कानून 2005

    घरेलू हिंसा कानून 2005 के लगभग एक साल के सफर में इस कानून को पुरूषों के खिलाफ़, घरफोडू व भारतीय संस्कृति के खिलाफ़ आदि तरीके से स्थापित करने की कोषिषे पूरजोर तरीके से की जा रही हैं। आम समाज को इस कानून के दुरूप्रयोग का खौफ दिखाया जा रहा है। 26 अगस्त 2007 को दिल्ली में ''पुरूष बचाओ'' एक बड़ी रैली आयोजित हुई, जिसे मीडिया ने जबरदस्त तरीके से हाईलाईट किया, उसे रैली में इस कानून के विरोध में स्वर साफ सुनायी दे रहे थे।
    मेरे जेहन में सवाल उठ रहा है कि आखिर क्यों समाज विषेषकर पुरूष इससे डरा हुआ है, क्यों इसका विरोध है? दबे पांव राजनैतिक लोग, मीडिया व समाज के प्रबुध्द वर्ग भी अपनी आपत्ति दर्ज कर रहे हैं।
    इस कानून की जितनी चर्चा इसके सकारात्मक पहलू और इसकी सार्थकता पर हो रही है, उससे कहीं ज्यादा इस कानून के विरोध में और इसकी निरर्थकता को लेकर चर्चाएं हो रही हैं। तरह-तरह की बातें इस कानून के लिए बारे में कहीं जा रही है, इसके औचित्य पर सवाल खड़े किये जा रहे हैं।
    मैं यहां पर महिला व बाल विकास केन्द्रिय मंत्री रेणुका चौधरी के उस कथन का हवाला देना चाहूंगा, जिसमें उन्होंने कहा कि ''इस कानून से पुरूषों में डर पैदा हुआ है तो मान लीजिए कानून सफल हो गया।''
    मेरे हिसाब से इस कथन का समाजषास्त्रीय विष्लेषण यह कहता है कि कानून पितृसत्तात्मक रूपी पूरे ढ़ाचे पर वार करता है, इस ढ़ाचे में जहां अभी तक पुरूष अपने पुरूष होने तथा महिला का महिला होने के नाते उस पर अपनी रोब जमा रहा था, उसे चोट पहुंच रही है, इस कानून से पुरूष के पौरूषत्व पर चोट पहुंच रही है। यह पुरूष को नुकसान नहीं अपितु पुरूष के पौरूषत्व पर हमला कर रहा है। जिससे पुरूष डरे हैं कि कहीं उन्हें पितृसत्ता के रूप में जो सत्ता मिली है, वह चली न जाये। यहां पर इसके स्वर इसलिए तीव्र और ज्यादा है क्योंकि यह कानून पितृसत्तात्मक ढ़ाचें पर वार कर रहा है। पुरूष अपने तथाकथित अधिकारों पर वैधानिक रोक लगाने से डर रहे हैं।

    मैं यहां पर इस कानून को लेकर उठे सवालों का विष्लेषण करने की कोषिष कर रहा हूं,। जिसमें पहला सवाल यह कानून घरफोडू है - तो क्या घर को बनाये रखने की जिम्मेदारी केवल महिला की है? क्या घर में शांति बनाये रखने के लिए उसे अपने उपर हो रहे सारे जुर्म को बिना आह किये चुप रहना चाहिए? वह महिला, जो जिन्दगी भर कई छोटे बड़े अवसरों पर महिला होने के नाते उपेक्षित व प्रताड़ित होती है, और उसके बावजूद पारिवारिक इज्जत को ढोती है, क्या ऐसी महिला को प्रताड़ना के विरूध्द स्वर उठाने का अधिकार भी नहीं?

    दूसरा सवाल यह कानून पुरूषों के खिलाफ़ है -यह कानून पुरूषों के खिलाफ़ नहीं है, ये कानून हिंसा के खिलाफ़ है। ये कानून सिविल कानून है, अगर घरेलू हिंसा की षिकायत की जाती है, तो उसमें पहले पुरूष को चेताया जायेगा और महिला को सुरक्षा मुहैया करायी जायेगी। पुरूष के खिलाफ़ तभी दण्डात्मक कार्यवाही होगी जब वह न्यायालय के आदेष की अवहेलना करता है। जो अभी तक कानून को पुरूष के खिलाफ़ होने की बात कही जा रही थी, असल में यह पुरूष के पौरूषत्व या कहें उसके पुरूष होने के ''अहम'' पर अंकुष लगाती है, जिसमें अब वह महिला को भोग या चीज न समझ कर महिला को एक मानव होने का अहसास दिलाती है।

    तीसरा सवाल इस कानून का दुरूप्रयोग होगा - दुनिया में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसके दो पहलू न हो। जिन्दगी में खुषी है तो गम भी है। इसी तरह हर कानून के साथ है, लेकिन उस काननू को इस आधार पर नकारा नहीं जा सकता है कि इसका गलत इस्तेमाल होगा। इसकी जरूरत, इसकी महत्ता और इस कानून से लाभान्वित होने वाले समाज या वर्ग को देखना पड़ेगा। यह भी अक्सर कहा जाता है कि जेलों में दोषियों से ज्यादा निर्दोष लोग बंद पड़े हैं। इसका यह मतलब नहीं कि सारे कानून को नकार दिया जाये। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी भी कानून का गलत या सही इस्तेमाल हम सभी लोग करते है,

    एक मैसवा का सदस्य होने के नाते मेरा इस विषय पर लिखना व अपना पक्ष रखना और भी ज्यादा जरूरी बन जाता है। मैसवा इस कानून के पक्ष में है, इस कानून का स्वागत करता है, और जितना संभव हो पायेगा इस कानून को प्रचारित व प्रसारित करने की जिम्मेदारी लेता है। मेरा सभी पुरूषों से विनम्र अनुरोध है कि इस कानून की आवष्यकता व इसके सकारात्मक पहलुओं पर गौर कीजिए और हम पुरूषों को अपना आत्मविष्लेषण करना चाहिए कि हम पुरूषों के व्यवहार व सोच की वजह से आज यह कानून बनाने की जरूरत पड़ी।

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

पंचायती राज व्यवस्था व पितृसत्ता का चक्रव्यूह


जनसंख्या के लिहाज से भारत के सबसे बडे़ तथा लगभग अस्सी फीसदी ग्रामीण जनता वाले राज्य उत्तर प्रदेश में दलित महिलाओं को पंचायत में आरक्षण तो मिल गया है लेकिन भारतीय समाज का कोढ़ समझी जाने वाली जातिवादी राजनैतिक बीमारी के बीच आज भी उन्हें अपने अस्तित्व एवं पहचान की लड़ाई लड़नी पड़ रही है। दलितों को आरक्षण तो मिल गया लेकिन आजादी अभी भी बाकी है। पितृसत्ता के चक्रव्यूह में फंसी पंचायती राज व्यवस्था को इससे मुक्त करने की जरूरत है

महिला सशक्तिकरण का डंका पीटने वाले भारत में दलित महिला ग्राम प्रधानों की स्थिति को ध्यान से देखें तो ऐसी नारी की छवि उभरती है जो एक ओर जातिगत तो दूसरी ओर महिला, तीसरी ओर गांव तो चैथी ओर प्रधान जैसे महत्वपूर्ण पद से चैतरफा बंधी हुई निःशब्द व अवाक् समाज का मजाक बनी हुई दिखाई देती है।

जिस भारतीय शहरी समाज की अधिकांश उच्चशिक्षित महिलाएं जो किसी सरकारी अथवा गैर-सरकारी क्षेत्रा में कार्यरत हैं, आज भी वे अपने निर्णय घर की चारदीवारी के भीतर पितृसत्तात्मक संरचना के अंतर्गत ही लेने को मजबूर हैं, वहां आर्थिक व सामाजिक रूप से पति एवं परिवार पर निर्भर इन दलित महिलाओं द्वारा स्वतंत्रा एवं निष्पक्ष निर्णय कर पाना कितना दुरूह है, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। शोध के आंकड़े भी बताते हंै कि पचास प्रतिशत से अधिक महिलाएं पति एवं परिवार की प्रेरणा से पंचायत सदस्या बनी हैं और चैवन प्रतिशत ने माना कि विकास कार्यो की देख-रेख वे स्वयं नहीं करतीं बल्ेिक उनके पति ही यह दायित्व निभाते हैं।
आजादी के बाद अधिकांश समुदायों एवं वर्गो की समस्या के हल के रूप में हमारी सरकारों ने आरक्षण की मीठी गोली को ही असफल रूप में अपनाया है परंतु इसके प्रभावों की समीक्षा करने की फुरसत ही किसी के पास नहीं है और दूसरी ओर इस गोली का असर ऐसा है कि बीमारी ज्यों की त्यों बनी रहने पर भी इसका लाभ लेने वाले समुदाय कुछ नहीं बोल पाते। यही कारण है कि जो गांव का प्रतिनिधित्व कर रहा है और जिसे गांव की समस्याओं एवं कार्यक्रमों का प्रमुख प्रवक्ता होना चाहिए, उसके पति अथवा परिवार के सदस्य यह दायित्व निभा रहे हैं क्योंकि न तो उसे कार्यक्रमों की उचित जानकारी है और न ही गैर मर्द से बात करने की आजादी।
ऐसा नहीं है कि परिवार की आवश्यकताओं का सदियों से प्रबंधन करने वाली इन महिलाओं को ग्रामीण समस्याओं का ज्ञान नहीं हैं अथवा ये ग्राम प्रबन्धन नहीं कर सकतीं परंतु उचित प्रशिक्षण, यथोचित सूचना एवं परमावश्यक महिला-आजाादी के अभाव में परिणाम शून्य ही मिलता है। हमारी सरकारें इन आवश्यकताओं को पूरा करने की जिम्मेदारी से सदैव कतराती रही हैं। इसी कारण सामाजिक बदलाव का डा0 अम्बेडकर का सपना आज भी किताबों में ही कैद है।
विभिन्न राजनैतिक दलों द्वारा जातीय-सम्मेलनों के आयोजन से जातिगत ढांचे की सुदृढ़ता का अनुमान लगाना बहुत ही आसान है। उस पर भी वर्तमान राजनैतिक दौर में जातीय-धु्रवीकरण ने इसे और भी मजबूती प्रदान की है।
लोकतंत्र के ऐसे घिनौने वातावरण में दलित महिला ग्राम-प्रधानों की स्थिति का आंकलन करना जितना आसान है उतना ही पेचीदा भी क्योंकि हम जिन सांस्कृतिक मूल्यों के बीच इस पितृ-प्रधान समाज में पल रहे हैं, वहां इन महिला सदस्यों की बहुत सी परेशानियां या तो हमें समस्या के रूप में महसूस ही न होंगी अथवा उनको जानने में हमारी रूचि ही न होगी।
ग्रामीण समस्याओं को हल करने की उच्च भावना से लबरेज नब्बे प्रतिशत महिलाएं इतनी विपरीत परिस्थितियों के होते हुए भी अपने नेतृत्व को आगे कायम रखना चाहती हैं ताकि आगे आने वाली पीढ़ियों को अपना विकास करने के लिए संघर्ष करने से पहले मूलभूत सुविधाओं के अभाव से संघर्ष न करना पडे़।
यही कारण है कि सामाजिक शक्ति के वितरण में बदलाव की बात को अस्सी प्रतिशत महिलाओं ने स्वीकार लिया जबकि उपरोक्त आंकडे़ कुछ और ही कहानी बयान करते हैं।
उपरोक्त बातों के परिप्रेक्ष्य में यदि विचार करें तो दलित एवं महिला के रूप में सामाजिक वर्जनाओं की शिकार ये महिलाएं ग्राम -प्रधान के रूप में तिहरे शोषण को झेल रही हैं। बदले में यदि किसी काम के लिए प्रतिष्ठा मिलती है तो वह इनके पति अथवा अपरोक्ष रूप में इनकी शक्तियों का प्रयोग करने वाले पुरूष को और बदनामी मिलती है तो वह इनके खाते में जाती है, ठीक उसी तरह जिस प्रकार गुलाम हिन्दुस्तान में अंग्रजों द्वारा लागू की गई जमींदारी प्रथा के परिणामस्वरूप शोषक वर्ग का खिताब भारतीय जमींदारों को मिला जबकि असली शोषक तो ब्रिटिश सरकार के नुमाइंदे थे।
पंचायत जैसी संस्था के अधिकार एवं कर्तव्यों से अनभिज्ञ ये महिलाएं, जातिवाद, संप्रदायवाद, लिंग असमानता, रूढ़िवादी परंपरा एवं पितृसत्तात्मक परिवार-व्यवस्था के बीच अप्रत्यक्ष पर्दा-प्रथा का सामना करते हुए ग्रामीण विकास को कौन सी दिशा दे पाएंगी ? क्या इसी तरह रामराज्य का सपना पूरा होगा?
इतिहास गवाह है कि बिना किसी ठोस एवं व्यावहारिक योजना के अभाव में उठाया गया हर कदम सकारात्मक की जगह नकारात्मक परिणाम ही लाता है। सरकारों को चाहिए कि राजनैतिक दाॅंव पेचांे की सफलता के लिए आरक्षणवादी उपायों के साथ-साथ इन दलित महिला ग्राम प्रधानों के उचित प्रशिक्षण की व्यवस्था तथा इनके अधिकारों से इन्हें परिचित कराएं। औचक निरीक्षणों के माध्यम से यह देखा जाय कि इनके पंचायतीराज अधिकारों का प्रयोग कोई अन्य व्यक्ति तो नहीं कर रहा है।
इसके अतिरिक्त प्रौढ़ शिक्षा के माध्यम से इन्हें शैक्षिक सबलता दी जाय तथा इनके द्वारा स्वतंत्रा निर्णय लिए जाने को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक अधिकारों में बढ़ोत्तरी की जाय तो गांवों की तस्वीर अभी भी बदल सकती है।
भारतीय समाज सदैव से परंपरावादी समाज रहा है जिसका अपना एक गौरवशाली इतिहास है परंतु आधुनिकता एवं वैश्वीकरण का वर्तमान दौर जो नवीन परंपराओं को गढ़ने का अवसर दे रहा है, यदि उसका सदुपयोग नहीं किया गया तो हम गौरवशाली भविष्य का निर्माण नहीं कर सकेंगे।
यही समय है जब हमारा समाज अपने भीतर की ढांचागत समस्याओं से छुटकारा पा सकता है। दुनियां के विकसित देशों की तरह हम भी अपनी आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाली तथा सम्पूर्ण जनसंख्या की निर्णायक नारी की शक्ति का विकास कर उसका सदुपयोग कर सकते हैं। सदियों से पितृसत्ता की जड़ परिधि से नारी को मुक्त करना होगा।

प्रवेश वर्मा 

मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

मातम की घडी और इंसाफ की बडी लडाई

ये मातम की भी घडी है और इंसाफ की एक बडी लडाई छेडने की भी. मातम इस देश में बचे-खुचे लोकतंत्र का गला घोंटने पर और लडाई - न पाए गए इंसाफ के लिए जो यहां के हर नागरिक का अधिकार है. छत्तीसगढ की निचली अदालत ने विख्यात मानवाधिकारवादी, जन-चिकित्सक और एक खूबसूरत इंसान डा. बिनायक सेन को भारतीय दंड संहिता की धारा 120-बी और धारा 124-ए, छत्तीसगढ विशेष जन सुरक्षा कानून की धारा 8(1),(2),(3) और (5) तथा गैर-कानूनी गतिविधि निरोधक कानून की धारा 39(2) के तहत राजद्रोह और राज्य के खिलाफ युद्ध छेडने की साज़िश करने के आरोप में 24 दिसम्बर के दिन उम्रकैद की सज़ा सुना दी. यहां कहने का अवकाश नहीं कि कैसे ये सारे कानून ही कानून की बुनियाद के खिलाफ हैं. डा. सेन को इन आरोपों में 24 मई, 2007 को गिरफ्तार किया गया और सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से पूरे दो साल साधारण कैदियों से भी कुछ मामलों में बदतर स्थितिओं में जेल में रहने के बाद, उन्हें ज़मानत दी गई. मुकादमा उनपर सितम्बर 2008 से चलना शुरु हुआ. सर्वोच्च न्यायालय ने यदि उन्हें ज़मानत देते हुए यह न कहा होता कि इस मुकदमे का निपटारा जनवरी 2011 तक कर दिया जाए, तो छत्तीसगढ सरकार की योजना थी कि मुकदमा दसियों साल चलता रहे और जेल में ही बिनायक सेन बगैर किसी सज़ा के दसियों साल काट दें. बहरहाल जब यह सज़िश नाकाम हुई और मजबूरन मुकदमें की जल्दी-जल्दी सुनवाई में सरकार को पेश होना पडा, तो उसने पूरा दम लगाकर उनके खिलाफ फर्ज़ी साक्ष्य जुटाने शुरु किए. डा. बिनायक पर आरोप था कि वे माओंवादी नेता नारायण सान्याल से जेल में 33 बार 26 मई से 30 जून, 2007 के बीच मिले. सुनवाई के दौरान साफ हुआ कि नारायण सान्याल के इलाज के सिलसिले में ये मुलाकातें जेल अधिकारियों की अनुमति से , जेलर की उपस्थिति में हुईं. डा. सेन पर मुख्य आरोप यह था कि उन्होंने नारायण सान्याल से चिट्ठियां लेकर उनके माओंवादी साथियों तक उन्हें पहुंचाने में मदद की. पुलिस ने कहा कि ये चिट्ठियां उसे पीयुष गुहा नामक एक कलकत्ता के व्यापारी से मिलीं जिसतक उसे डा. सेन ने पहुंचाया था. गुहा को पुलिस ने 6 मई,2007 को रायपुर में गिरफ्तार किया. गुहा ने अदालत में बताया कि वह 1 मई को गिरफ्तार हुए. बहरहाल ये पत्र कथित रूप से गुहा से ही मिले, इसकी तस्दीक महज एक आदमी अ़निल सिंह ने की जो कि एक कपडा व्यापारी है और पुलिस के गवाह के बतौर उसने कहा कि गुहा की गिरफ्तरी के समय वह मौजूद था. इन चिट्ठियों पर न कोई नाम है, न तारीख, न हस्ताक्षर , न ही इनमें लिखी किसी बात से डा. सेन से इनके सम्बंधों पर कोई प्रकाश पडता है. पुलिस आजतक भी गुहा और डा़ सेन के बीच किसी पत्र-व्यवहार, किसी फ़ोन-काल,किसी मुलाकात का कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाई. एक के बाद एक पुलिस के गवाह जिरह के दौरान टूटते गए. पुलिस ने डा.सेन के घर से मार्क्सवादी साहित्य और तमाम कम्यूनिस्ट पार्टियों के दस्तावेज़ , मानवाधिकार रिपोर्टें, सी.डी़ तथा उनके कम्प्यूटर से तमाम फाइलें बरामद कीं. इनमें से कोई चीज़ ऐसी न थी जो किसी भी सामान्य पढे लिखे, जागरूक आदमी को प्राप्त नहीं हो सकतीं. घबराहट में पुलिस ने भाकपा (माओंवादी) की केंद्रीय कमेटी का एक पत्र पेश किया जो उसके अनुसार डा. सेन के घर से मिला था. मज़े की बात है कि इस पत्र पर भी भेजने वाले के दस्तखत नहीं हैं. दूसरे, पुलिस ने इस पत्र का ज़िक्र उनके घर से प्राप्त वस्तुओं की लिस्ट में न तो चार्जशीट में किया था, न ”सर्च मेमों” में. घर से प्राप्त हर चीज़ पर पुलिस द्वारा डा. बिनायक के हस्ताक्षर लिए गए थे. लेकिन इस पत्र पर उनके दस्तखत भी नहीं हैं. ज़ाहिर है कि यह पत्र फर्ज़ी है. साक्ष्य के अभाव में पुलिस की बौखलाहट तब और हास्यास्पद हो उठी जब उसने पिछली 19 तारीख को डा.सेन की पत्नी इलिना सेन द्वारा वाल्टर फर्नांडीज़, पूर्व निदेशक, इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट ( आई.एस. आई.),को लिखे एक ई-मेल को पकिस्तानी आई.एस. आई. से जोडकर खुद को हंसी का पात्र बनाया. मुनव्वर राना का शेर याद आता है-
“बस इतनी बात पर उसने हमें बलवाई लिक्खा है
हमारे घर के बरतन पे आई.एस.आई लिक्खा है”
इस ई-मेल में लिखे एक जुमले ”चिम्पांज़ी इन द वाइटहाउस” की पुलिसिया व्याख्या में उसे कोडवर्ड बताया गया.( आखिर मेरे सहित तमाम लोग इतने दिनॉं से मानते ही रहे हैं कि ओंबामा से पहले वाइट हाउस में एक बडा चिंम्पांज़ी ही रहा करता था.) पुलिस की दयनीयता इस बात से भी ज़ाहिर है कि डा.सेन के घर से मिले एक दस्तावेज़ के आधार पर उन्हें शहरों में माओंवादी नेटवर्क फैलाने वाला बताया गया. यह दस्तावेज़ सर्वसुलभ है. यह दस्तावेज़ सुदीप चक्रवर्ती की पुस्तक, ”रेड सन- ट्रैवेल्स इन नक्सलाइट कंट्री” में परिशिष्ट के रूप में मौजूद है. कोई भी चाहे इसे देख सकता है. कुल मिलाकर अदालत में और बाहर भी पुलिस के एक एक झूठ का पर्दाफाश होता गया. लेकिन नतीजा क्या हुआ? अदालत में नतीजा वही हुआ जो आजकल आम बात है. भोपाल गैस कांड् पर अदालती फैसले को याद कीजिए. याद कीजिए अयोध्या पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को .क्या कारण हे कि बहुतेरे लोगों को तब बिलकुल आश्चर्य नहीं होता जब इस देश के सारे भ्रश्टाचारी, गुंडे, बदमाश , बलात्कारी टी.वी. पर यह कहते पाए जाते हैं कि वे न्यायपालिका का बहुत सम्मान करते हैं?
याद ये भी करना चाहिए कि भारतीय दंड संहिता में राजद्रोह की धाराएं कब की हैं. राजद्रोह की धारा 124 -ए जिसमें डा. सेन को दोषी करार दिया गया है 1870 में लाई गई जिसके तहत सरकार के खिलाफ ”घृणा फैलाना”, ” अवमानना करना” और ” असंतोष पैदा”करना राजद्रोह है. क्या ऐसी सरकारें घृणित नहीं है जिनके अधीन 80 फीसदी हिंदुस्तानी 20 रुपए रोज़ पर गुज़ारा करते हैं? क्या ऐसी सरकारें अवमानना के काबिल नहीं जिनके मंत्रिमंडल राडिया, टाटा, अम्बानी, वीर संघवी, बर्खा दत्त और प्रभु चावला की बातचीत से निर्धारित होते हैं ? क्या ऐसी सरकारों के प्रति हम और आप असंतोष नहीं रखते जो आदिवसियों के खिलाफ ”सलवा जुडूम” चलाती हैं, बहुराश्ट्रीय कम्पनियों और अमरीका के हाथ इस देश की सम्पदा को दुहे जाने का रास्ता प्रशस्त करती हैं. अगर यही राजद्रोह की परिभाशा है जिसे गोरे अंग्रेजों ने बनाया था और काले अंग्रेजों ने कायम रखा, तो हममे से कम ही ऐसे बचेंगे जो राजद्रोही न हों . याद रहे कि इसी धारा के तहत अंग्रेजों ने लम्बे समय तक बाल गंगाधर तिलक को कैद रखा.
डा. बिनायक और उनकी शरीके-हयात इलीना सेन देश के उच्चतम शिक्षा संस्थानॉं से पढकर आज के छत्तीसगढ में आदिवसियों के जीवन में रच बस गए. बिनायक ने पी.यू.सी.एल के सचिव के बतौर छत्तीसगढ सरकार को फर्ज़ी मुठभेड़ों पर बेनकाब किया, सलवा-जुडूम की ज़्यादतियों पर घेरा, उन्होंने सवाल उठाया कि जो इलाके नक्सल प्रभावित नहीं हैं, वहां क्यों इतनी गरीबी,बेकारी, कुपोषण और भुखमरी है?. एक बच्चों के डाक्टर को इससे बडी तक्लीफ क्या हो सकती है कि वह अपने सामने नौनिहालों को तडपकर मरते देखे? 
इस तक्लीफकुन बात के बीच एक रोचक बात यह है कि साक्ष्य न मिलने की हताशा में पुलिस ने डा.सेन के घर से कथित रूप से बरामद माओंवादियों की चिट्ठी में उन्हें ”कामरेड” संबोधित किए जाने पर कहा कि ”कामरेड उसी को कहा जाता है, जो माओंवादी होता है ”. तो आप में से जो भी कामरेड संबोधित किए जाते हों ( हों भले ही न), सावधान रहिए. कभी गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने कबीर के सौ पदों का अनुवाद किया था. कबीर की पंक्ति थी, ”निसिदिन खेलत रही सखियन संग”. गुरुदेव ने अनुवाद किया, ”Day and night, I played with my comrades' मुझे इंतज़ार है कि कामरेड शब्द के इस्तेमाल के लिए गुरुदेव या कबीर पर कब मुकदमा चलाया जाएगा?
अकारण नहीं है कि जिस छत्तीसगढ में कामरेड शंकर गुहा नियोगी के हत्यारे कानून के दायरे से महफूज़ रहे, उसी छत्तीसगढ में नियोगी के ही एक देशभक्त, मानवतावादी, प्यारे और निर्दोष चिकित्सक शिष्य को उम्र कैद दी गई है. 1948 में शंकर शैलेंद्र ने लिखा था,
“भगतसिंह ! इस बार न लेना काया भारतवासी की,
देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फाँसी की !
यदि जनता की बात करोगे, तुम गद्दार कहाओगे--
बंब संब की छोड़ो, भाशण दिया कि पकड़े जाओगे !
निकला है कानून नया, चुटकी बजते बँध जाओगे,
न्याय अदालत की मत पूछो, सीधे मुक्ति पाओगे,
कांग्रेस का हुक्म; जरूरत क्या वारंट तलाशी की ! “
ऊपर की पंक्तियों में ब़स कांग्रेस के साथ भाजपा और जोड़ लीजिए.
आश्चर्य है कि साक्ष्य होने पर भी कश्मीर में शोंपिया बलात्कार और हत्याकांड के दोषी, निर्दोष नौजवानॉं को आतंकवादी बताकर मार देने के दोषी सैनिक अधिकारी खुले घूम रहे हैं और अदालत उनका कुछ नहीं कर सकती क्योंकि वे ए.एफ.एस. पी.ए. नामक कानून से संरक्षित हैं, जबकि साक्ष्य न होने पर भी डा. बिनायक को उम्र कैद मिलती है.
- मित्रों मैं यही चाहता हूं कि जहां जिस किस्म से हो , जितनी दूर तक हो हम डा. बिनायक सेन जैसे मानवरत्न के लिए आवाज़ उठाएं ताकि इस देश में लोग उस दूसरी गुलामी से सचेत हों जिसके खिलाफ नई आज़ादी के एक योद्धा हैं डा. बिनायक सेन. 

सोमवार, 8 नवंबर 2010

सीत की मार


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शनिवार, 6 नवंबर 2010

कार्यस्थलो‍ पर यौन उत्पीडन पडेगा महँगा

कार्यस्थलो‍ पर यौन उत्पीडन पडेगा महँगा
अब कार्यस्थलों पर महिलाएँ सुरक्षित महसूस कर पाएंगी क्योंकि सरकार ने गुरुवार को उस विधेयक के प्रारूप को मंजूरी दे दी जिसमें महिलाओं का यौन उत्पीड़न रोकने के उपाय किए गए हैं. इस विधेयक के अनुसार कार्यस्थलों पर किसी भी तरह के शारीरिक संपर्क, उसके प्रयास या यौनाचार की पेशकश, अश्लील टिप्पणियां या अश्लील चित्र दिखाना अथवा अश्लील हावभाव प्रदर्शित करना  यौन उत्पीड़न मानी जाएगा.

इस विधेयक की परिभाषा को सुप्रीम कोर्ट में चले विशाखा बनाम राजस्थान सरकार केस के आधार पर तैयार किया गया है. यह विधेयक जब कानून की शक्ल ले लेगा तब यह सरकारी, सार्वजनिक, निजी क्षेत्रों के संगठित और गैर-संगठित क्षेत्रों पर लागू होगा. इस कानून के तहत दोषित साबित होने पर नियोक्ता को 50 हजार रुपये तक का जुर्माना भरना पड़ सकता है. 

इस कानून का लाभ दफ्तर में काम करने वाली महिलाओं, उपभोक्ता, प्रशिक्षु, दैनिक या अस्थायी कर्मचारी, कॉलेज व विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली छात्राओं और अस्पताल जाने वाली महिला मरीजों को मिलेगा. परंतु घरों मे‍ काम करने वाली नौकरानियां इसके दायरे में नहीं आएंगी.

कहाँ की जा सकेगी शिकायत?

यदि कोई महिला स्वयं को यौन उत्पीडन का शिकार हुआ पाएगी तो वह इसकी शिकायत अपने कार्यस्थल पर बने एक आंतरिक शिकायत समिति से कर सकेगी. सभी कार्यस्थलो‍ पर ऐसी समिति का बनाना अनिवार्य होगा. परंतु यदि कार्यालय छोटा है तथा जहां कर्मचारियों की संख्या कम है तो महिलाएं उप जिला स्तर पर स्थापित स्थानीय शिकायत समिति से शिकायत कर पाएन्गी. 

इसके अलावा शिकायत करने वाली महिला की सुरक्षा पर भी ध्यान दिया गया है. धमकी और दबाव से बचने के लिए पीड़ित महिला तबादले की मांग कर सकती है अथवा छुट्टी पर जा सकती है. जांच समिति को 90 दिन के भीतर जांच पूरी करनी होगी और जांच पूरी होने के बाद नियोक्ता या जिलाधिकारी को समिति की सिफारिशों को 60 दिन में लागू करना होगा


SATURDAY, 06 NOVEMBER 2010 0 तरकश ब्यूरो 

सोमवार, 18 अक्तूबर 2010

लिंग समानता बनाम नारी-सशक्तीकरण


ये पोस्ट मेरे शोध कार्य का अंश है. मैं इस विषय पर शोध कर रही हूँ कि किस प्रकार हमारे धर्मशास्त्रों ने नारी-सशक्तीकरण पर प्रभाव डाला है? क्या ये प्रभाव मात्र नकारात्मक है अथवा सकारात्मक भी है? जहाँ एक ओर हम मनुस्मृति के "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते" वाला श्लोक उद्धृत करके ये बताने का प्रयास करते हैं कि हमारे देश में प्राचीनकाल में नारी की पूजा की जाती थी, वहीं कई दूसरे ऐसे श्लोक हैं (न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हति आदि) जिन्हें नारी के विरुद्ध उद्धृत किया जाता है और ये माना जाता है कि इस तरह के श्लोकों ने पुरुषों को बढ़ावा दिया कि वे औरतों को अपने अधीन बनाए रखने को मान्य ठहरा सकें. मेरे शोध का उद्देश्य यह पता लगाना है कि इन धर्मशास्त्रीय प्रावधानों का नारी की स्थिति पर किस प्रकार का प्रभाव अधिक पड़ा है.
आज से कुछ दशक पहले हमारा समाज इन धर्मशास्त्रों से बहुत अधिक प्रभावित था. अनपढ़ व्यक्ति भी "अरे हमारे वेद-पुराण में लिखा है" कहकर अपनी बात सिद्ध करने का प्रयास करते थे, चाहे उन्होंने कभी उनकी सूरत तक न देखी हो. आज स्थिति उससे बहुत भिन्न है, कम से कम प्रबुद्ध और पढ़ा-लिखा वर्ग तो सदियों पहले लिखे इन ग्रंथों की बात नहीं ही करता है. पर फिर भी कुछ लोग हैं, जो आज भी औरतों के सशक्तीकरण की दिशा इन शास्त्रों के आधार पर तय करना चाहते हैं... अथवा अनेक उद्धरण देकर यह सिद्ध करना चाहते हैं कि 'हमारा धर्म अधिक श्रेष्ठ है' और 'हमारे धर्म में तो औरतें कभी निचले दर्जे पर समझी ही नहीं गयी' और मजे की बात यह कि यही लोग अपने घर की औरतों को घर में रखने के लिए भी शास्त्रों से उदाहरण खोज लाते हैं. यानी चित भी मेरी पट भी मेरी.मेरा कार्य इससे थोड़ा अलग हटकर है. मैं इन शास्त्रों द्वारा न ये सिद्ध करने की कोशिश कर रही हूँ कि प्राचीन भारत में नारी की स्थिति सर्वोच्च थी और उसके साथ कोई भेदभाव होता ही नहीं था (क्योंकि ये सच नहीं है गार्गी-याज्ञवल्क्य संवाद इसका उदाहरण है) और न ये सिद्ध करने की कोशिश कर रही हूँ कि नारी की वर्तमान स्थिति के लिए पूरी तरह शास्त्र उत्तरदायी हैं... मैं यह जानने का प्रयास कर रही हूँ कि धर्मशास्त्रों के प्रावधान वर्तमान में हमारे समाज में कहाँ तक प्रवेश कर पाए हैं और पुनर्जागरण काल से लेकर आज तक नारी-सशक्तीकरण पर कितना और किस प्रकार का प्रभाव डाल पाए हैं?
वस्तुतः धर्मशास्त्रीय प्रावधानों ने नारी की स्थिति मुख्यतः उसके सशक्तीकरण की प्रक्रिया पर क्या प्रभाव डाला है... इसे जानने से पूर्व सशक्तीकरण को जानना आवश्यक है. सशक्तीकरण को अलग-अलग विद्वानों ने भिन्न-भिन्न रूप में परिभाषित किया है. कैम्ब्रिज शब्दकोष इसे प्राधिकृत करने के रूप में परिभाषित करता है. लोगों के सम्बन्ध में इसका अर्हत होता है उनका अपने जीवन पर नियंत्रण. सशक्तीकरण की बात समाज के कमजोर वर्ग के विषय में की जाती है, जिनमें गरीब, महिलायें, समाज के अन्य दलित और पिछड़े वर्ग के लोग सम्मिलित हैं. औरतों को सशक्त बनाने का अर्थ है 'संसाधनों पर नियंत्रण स्थापित करना और उसे बनाए रखना ताकि वे अपने जीवन के विषय में निर्णय ले सकें या दूसरों द्वारा स्वयं के विषय में लिए गए निर्णयों को प्रभावित कर सकें.' एक व्यक्ति सशक्त तभी कहा जा सकता है, जब उसका समाज के एक बड़े हिस्से के संसाधन शक्ति पर स्वामित्व होता है. वह संसाधन कई रूपों में हो सकता है जैसे- निजी संपत्ति, शिक्षा, सूचना, ज्ञान, सामाजिक प्रतिष्ठा, पद, नेतृत्व तथा प्रभाव आदि. स्वाभाविक है कि जो अशक्त है उसे ही सशक्त करने की आवश्यकता है और यह एक तथ्य है कि हमारे समाज में औरतें अब भी बहुत पिछड़ी हैं... ये बात हमारे नीति-निर्माताओं, प्रबुद्ध विचारकों, अर्थशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों के द्वारा मान ली गयी है. कुछ लोग चाहे जितना कहें कि औरतें अब तो काफी सशक्त हो गयी हैं या फिर यदि औरतें सताई जाती हैं तो पुरुष भी तो कहीं-कहीं शोषित हैं.
विभिन्न विचारकों द्वारा ये मान लिया गया है कि भारत में औरतों की दशा अभी बहुत पिछड़ी है... इसीलिये विगत कुछ दशकों से प्रत्येक स्तर पर नारी-सशक्तीकरण के प्रयास किये जा रहे हैं. इन प्रयासों के असफल होने या अपने लक्ष्य को न प्राप्त कर पाने का बहुत बड़ा कारण अशिक्षा है, परन्तु उससे भी बड़ा कारण समाज की पिछड़ी मानसिकता है. जब हम आज भी इस बात को स्वीकार नहीं कर पाए हैं कि हमारे समाज में लैंगिक भेदभाव है, तो उसे दूर करने और नारी को सशक्त बनाने की बात ही कहाँ उठती है? हम अब भी नारी के साथ हो रही हिंसा के लिए सामाजिक संरचना को दोष न देकर व्यक्ति की मानसिक कुवृत्तियों को दोषी ठहराने लगते हैं...हम में से अब भी कुछ लोग औरतों को पिछड़ा नहीं मानते बल्कि कुछ गिनी-चनी औरतों का उदाहरण देकर ये सिद्ध करने लगते हैं कि औरतें कहाँ से कहाँ पहुँच रही हैं...?
हाँ, कुछ औरतें पहुँच गयी हैं अपने गंतव्य तक संघर्ष करते-करते, पर अब भी हमारे देश की अधिकांश महिलायें आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से भी पिछड़ी हैं. उन्हें आगे लाने की ज़रूरत है.