मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

पंचायती राज व्यवस्था व पितृसत्ता का चक्रव्यूह


जनसंख्या के लिहाज से भारत के सबसे बडे़ तथा लगभग अस्सी फीसदी ग्रामीण जनता वाले राज्य उत्तर प्रदेश में दलित महिलाओं को पंचायत में आरक्षण तो मिल गया है लेकिन भारतीय समाज का कोढ़ समझी जाने वाली जातिवादी राजनैतिक बीमारी के बीच आज भी उन्हें अपने अस्तित्व एवं पहचान की लड़ाई लड़नी पड़ रही है। दलितों को आरक्षण तो मिल गया लेकिन आजादी अभी भी बाकी है। पितृसत्ता के चक्रव्यूह में फंसी पंचायती राज व्यवस्था को इससे मुक्त करने की जरूरत है

महिला सशक्तिकरण का डंका पीटने वाले भारत में दलित महिला ग्राम प्रधानों की स्थिति को ध्यान से देखें तो ऐसी नारी की छवि उभरती है जो एक ओर जातिगत तो दूसरी ओर महिला, तीसरी ओर गांव तो चैथी ओर प्रधान जैसे महत्वपूर्ण पद से चैतरफा बंधी हुई निःशब्द व अवाक् समाज का मजाक बनी हुई दिखाई देती है।

जिस भारतीय शहरी समाज की अधिकांश उच्चशिक्षित महिलाएं जो किसी सरकारी अथवा गैर-सरकारी क्षेत्रा में कार्यरत हैं, आज भी वे अपने निर्णय घर की चारदीवारी के भीतर पितृसत्तात्मक संरचना के अंतर्गत ही लेने को मजबूर हैं, वहां आर्थिक व सामाजिक रूप से पति एवं परिवार पर निर्भर इन दलित महिलाओं द्वारा स्वतंत्रा एवं निष्पक्ष निर्णय कर पाना कितना दुरूह है, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। शोध के आंकड़े भी बताते हंै कि पचास प्रतिशत से अधिक महिलाएं पति एवं परिवार की प्रेरणा से पंचायत सदस्या बनी हैं और चैवन प्रतिशत ने माना कि विकास कार्यो की देख-रेख वे स्वयं नहीं करतीं बल्ेिक उनके पति ही यह दायित्व निभाते हैं।
आजादी के बाद अधिकांश समुदायों एवं वर्गो की समस्या के हल के रूप में हमारी सरकारों ने आरक्षण की मीठी गोली को ही असफल रूप में अपनाया है परंतु इसके प्रभावों की समीक्षा करने की फुरसत ही किसी के पास नहीं है और दूसरी ओर इस गोली का असर ऐसा है कि बीमारी ज्यों की त्यों बनी रहने पर भी इसका लाभ लेने वाले समुदाय कुछ नहीं बोल पाते। यही कारण है कि जो गांव का प्रतिनिधित्व कर रहा है और जिसे गांव की समस्याओं एवं कार्यक्रमों का प्रमुख प्रवक्ता होना चाहिए, उसके पति अथवा परिवार के सदस्य यह दायित्व निभा रहे हैं क्योंकि न तो उसे कार्यक्रमों की उचित जानकारी है और न ही गैर मर्द से बात करने की आजादी।
ऐसा नहीं है कि परिवार की आवश्यकताओं का सदियों से प्रबंधन करने वाली इन महिलाओं को ग्रामीण समस्याओं का ज्ञान नहीं हैं अथवा ये ग्राम प्रबन्धन नहीं कर सकतीं परंतु उचित प्रशिक्षण, यथोचित सूचना एवं परमावश्यक महिला-आजाादी के अभाव में परिणाम शून्य ही मिलता है। हमारी सरकारें इन आवश्यकताओं को पूरा करने की जिम्मेदारी से सदैव कतराती रही हैं। इसी कारण सामाजिक बदलाव का डा0 अम्बेडकर का सपना आज भी किताबों में ही कैद है।
विभिन्न राजनैतिक दलों द्वारा जातीय-सम्मेलनों के आयोजन से जातिगत ढांचे की सुदृढ़ता का अनुमान लगाना बहुत ही आसान है। उस पर भी वर्तमान राजनैतिक दौर में जातीय-धु्रवीकरण ने इसे और भी मजबूती प्रदान की है।
लोकतंत्र के ऐसे घिनौने वातावरण में दलित महिला ग्राम-प्रधानों की स्थिति का आंकलन करना जितना आसान है उतना ही पेचीदा भी क्योंकि हम जिन सांस्कृतिक मूल्यों के बीच इस पितृ-प्रधान समाज में पल रहे हैं, वहां इन महिला सदस्यों की बहुत सी परेशानियां या तो हमें समस्या के रूप में महसूस ही न होंगी अथवा उनको जानने में हमारी रूचि ही न होगी।
ग्रामीण समस्याओं को हल करने की उच्च भावना से लबरेज नब्बे प्रतिशत महिलाएं इतनी विपरीत परिस्थितियों के होते हुए भी अपने नेतृत्व को आगे कायम रखना चाहती हैं ताकि आगे आने वाली पीढ़ियों को अपना विकास करने के लिए संघर्ष करने से पहले मूलभूत सुविधाओं के अभाव से संघर्ष न करना पडे़।
यही कारण है कि सामाजिक शक्ति के वितरण में बदलाव की बात को अस्सी प्रतिशत महिलाओं ने स्वीकार लिया जबकि उपरोक्त आंकडे़ कुछ और ही कहानी बयान करते हैं।
उपरोक्त बातों के परिप्रेक्ष्य में यदि विचार करें तो दलित एवं महिला के रूप में सामाजिक वर्जनाओं की शिकार ये महिलाएं ग्राम -प्रधान के रूप में तिहरे शोषण को झेल रही हैं। बदले में यदि किसी काम के लिए प्रतिष्ठा मिलती है तो वह इनके पति अथवा अपरोक्ष रूप में इनकी शक्तियों का प्रयोग करने वाले पुरूष को और बदनामी मिलती है तो वह इनके खाते में जाती है, ठीक उसी तरह जिस प्रकार गुलाम हिन्दुस्तान में अंग्रजों द्वारा लागू की गई जमींदारी प्रथा के परिणामस्वरूप शोषक वर्ग का खिताब भारतीय जमींदारों को मिला जबकि असली शोषक तो ब्रिटिश सरकार के नुमाइंदे थे।
पंचायत जैसी संस्था के अधिकार एवं कर्तव्यों से अनभिज्ञ ये महिलाएं, जातिवाद, संप्रदायवाद, लिंग असमानता, रूढ़िवादी परंपरा एवं पितृसत्तात्मक परिवार-व्यवस्था के बीच अप्रत्यक्ष पर्दा-प्रथा का सामना करते हुए ग्रामीण विकास को कौन सी दिशा दे पाएंगी ? क्या इसी तरह रामराज्य का सपना पूरा होगा?
इतिहास गवाह है कि बिना किसी ठोस एवं व्यावहारिक योजना के अभाव में उठाया गया हर कदम सकारात्मक की जगह नकारात्मक परिणाम ही लाता है। सरकारों को चाहिए कि राजनैतिक दाॅंव पेचांे की सफलता के लिए आरक्षणवादी उपायों के साथ-साथ इन दलित महिला ग्राम प्रधानों के उचित प्रशिक्षण की व्यवस्था तथा इनके अधिकारों से इन्हें परिचित कराएं। औचक निरीक्षणों के माध्यम से यह देखा जाय कि इनके पंचायतीराज अधिकारों का प्रयोग कोई अन्य व्यक्ति तो नहीं कर रहा है।
इसके अतिरिक्त प्रौढ़ शिक्षा के माध्यम से इन्हें शैक्षिक सबलता दी जाय तथा इनके द्वारा स्वतंत्रा निर्णय लिए जाने को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक अधिकारों में बढ़ोत्तरी की जाय तो गांवों की तस्वीर अभी भी बदल सकती है।
भारतीय समाज सदैव से परंपरावादी समाज रहा है जिसका अपना एक गौरवशाली इतिहास है परंतु आधुनिकता एवं वैश्वीकरण का वर्तमान दौर जो नवीन परंपराओं को गढ़ने का अवसर दे रहा है, यदि उसका सदुपयोग नहीं किया गया तो हम गौरवशाली भविष्य का निर्माण नहीं कर सकेंगे।
यही समय है जब हमारा समाज अपने भीतर की ढांचागत समस्याओं से छुटकारा पा सकता है। दुनियां के विकसित देशों की तरह हम भी अपनी आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाली तथा सम्पूर्ण जनसंख्या की निर्णायक नारी की शक्ति का विकास कर उसका सदुपयोग कर सकते हैं। सदियों से पितृसत्ता की जड़ परिधि से नारी को मुक्त करना होगा।

प्रवेश वर्मा 

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