शुक्रवार, 30 मार्च 2012

महिलाएँ ! और सुरक्षित ?

गुडगाँव के पब में कामकाजी महिला के साथ गैंग रेप की घटना, मानवता को शर्मसार करती है. यह कोई पहली बार नहीं है कि किसी महिला के साथ गैंगरेप, बलात्कार या छेड़खानी की वारदात हुई है. आये दिन जाने ऐसी कितनी घटनाएँ प्रकाश में आती रहती है और इससे भी कहीं ज्यादा महिलाओं के साथ घटित उन घटनाओं की संख्या है जो कि प्रकाश में नहीं आती हैं या फिर यह कहिये कि जिन्हें प्रकाश में आने नहीं दिया जाता है. चाहें समाज हो, प्रशासन हो, स्वयं सेवी संस्था हो या फिर साहित्य जगत, सब के सब ऐसी समस्याओं का समाधान खोजने की बजाय उसमें मिर्च-मसाला लगाकर एक दुसरे के सामने परोशने में लगे रहते हैं. ताकि पीड़िता लोक-लाज के मारे अपनी जुबान पे ताला लगा ले या फिर शर्म से खुदखुशी कर ले और इस प्रकार महिलाओं का शारीरक और मानसिक शोषण सतत चलता रहता है. चूँकि गुडगाँव की शर्मशार करने वाली घटना समाज के मान-मर्यादा, लोक-लाज की सीमाओं को चीरती हुई बाहर आ चूँकि है. अतः मौका देखकर सारे शरीफ (समाज, प्रशासन, स्वयं सेवी संस्था, मीडिया और साहित्य जगत इत्यादि) तन पर शराफत की चादर डालें खुद को शरीफ कहलाने की दौड़ में एक दुसरे पर छीटा-कशी में जुट गए हैं. मानों बरसाती मेढक मौसम के मिजाज को देखकर खेत और खलिहानों में टर-टर की आवाज लगा रहे हो. आखिर यही तो उपयुक्त समय है अपनी संख्या बढाने के लिए प्रजनन करने का. इन दूध के धुलें हुए शरीफों से यह पूछना चाहता हूँ कि मान-मर्यादा, इज्जत और मानवता की इतनी चिंता है तो फिर ऐसी घटनाओं को अंजाम क्यों देते हो? आख़िरकार वो घिनौना चेहरा हमी में से किसी एक का है. हमारे बीच होने वाली यह घटनाएँ यह सोचने पर मजबुर करती है कि क्या हम सच में मानव ही है जिनका सामाजिक और मानसिक स्तर जानवरों से भी निचे गिर चूका है? इन घटनाओ के पीछे एक गन्दी मानसिकता और सोच है जिसका कोई एक चेहरा नहीं हो सकता. चाहें समाज हो, प्रशासन हो, स्वयंसेवी संस्था हो या फिर हमारा जागरण जन्शन मंच, सब के सब एक सुर-ताल में अपन राग अलापे जा रहे हैं. यहाँ एक प्रश्न रखना चाहता हूँ कि इस घटना का शिकार हमारी बहन और बेटी हुई होती तो हम क्या करते? यदि इस वारदात को कोई अपना बेटा, भाई या बाप अंजाम दिया होता तो हम क्या करते……..? हम यह कर देते और हम वो कर देते…… अरे साहब डींगे हाकना छोडिये. मैं कोई आसमान से उतरा फ़रिश्ता नहीं हूँ. मैं भी इसी हकीकत के धरातल पर रहता हूँ. सारी हकीकत से वाकिफ हूँ. जो इन घटनाओं को अंजाम देते हैं, वो और उनके अपने भी कल तक यही कहते आये हैं, जो आपके दिमाग में चल रहा है. पर आज वो खुद को दागदाग होने से बचाने में लगे होंगे. इस अवसर पर एक शायर की कही हुई बात याद आ गयी…एक ही उल्लू काफी है,वीरां गुलिस्तां करने को; उस देश का यारों क्या होगा जहाँ हर शाख पर उल्लू बैठे हैं.

ऐसी घटना क्रम को रोकने के लिए स्थानीय पुलिस ने यह फरमान जारी किया है कि अगर रात को आठ बजे के बाद महिलाओं से काम करवाना है तो पहले श्रम विभाग से अनुमति लेनी होगी। इस फरमान के विरोध में, जो मीडिया और महिला आयोग के फरमान आये हैं, उससे तो स्पष्ट होता है कि हरेक महिला के साथ, चाहें वो घर के भीतर हो या बाहर, एक सुरक्षाकर्मी लगा दिया जाय क्योंकि महिलाओं के साथ ऐसी घिनौनी वारदातें अन्दर-बाहर,हरेक जगह हो रही है. यदि सुरक्षाकर्मी कम पड़ जाते हैं तो कुछ मीडिया और महिला आयोग से ले लिया जाय ताकि महिलाओं का शारीरिक और मानसिक शोषण करने का एक और मौका मिल जाये और वो लाचार होकर इज्जत-आबरू की खातिर एक बार फिर कठपुतली बन जाये. कुछ लोग मानते है कि महिलाओं को देर रात तक बाहर रहना अपराध को दावत देने जैसा है. अतः पुलिस द्वारा उठाये गए इस कदम की सराहना कर रहे हैं. वो लोग इस बात को सिद्ध कर रहे है कि औरत सिर्फ एक उपभोग की वस्तु है जिसे हरेक समय और हरेक जगह व्यवस्थित नहीं किया जा सकता.

प्रथम सवाल : क्या हमारा सुरक्षा तंत्र महिलाओं की सुरक्षा करने में पूरी तरह असफल हो चुका है?

मेरे विचार : हाँ. परन्तु इसके जिम्मेदार सुरक्षा तंत्र नहीं बल्कि उस तंत्र के लोग है जो हमारे सामाजिक तंत्र के अभिन्न हिस्सा है. जब हमारा सामाजिक और मानसिक स्तर का हास हुआ है तो उसका प्रभाव हरेक तंत्र पड़ना एक स्वाभाविक घटनाक्रम होगा क्योंकि किसी भी तंत्र का निर्माण सामाजिक तंत्र के अवयवों से होता है. ऐसी परिस्थिति में समस्याओं को समाधान खोजने की बजाय एक दुसरे को दोषी ठहराना कहाँ तक उचित होगा?

द्वितीय सवाल: अगर किसी महिला के साथ बलात्कार होता है तो क्या वह स्वयं इसके लिए जिम्मेदार है, इस घटना का दोष पुरुष को नहीं दिया जाना चाहिए?


मेरे विचार : यदि किसी महिला के साथ ऐसी वारदात होती है तो इसके लिए जिम्मेदार, ना ही उक्त महिला है और ना ही पुरुष बल्कि जिम्मेदार है हमारे गंदे सामाजिक और मानसिक स्तर जिसके आवरण से हम सभी खुद को मुक्त नहीं करना चाहते.

तृतीय सवाल : क्या पंजाब शॉप्स एंड कमर्शियल एस्टैब्लिशमेंट एक्ट 1958 लागू करने के बाद रात आठ बजे से पहले महिलाएं खुद को सुरक्षित मान सकती हैं?

मेरे विचार : जबकि किसी एक्ट को लागु करने वाले और तोड़ने वाले भी हम ही हैं तो दुनिया का कोई भी एक्ट लागु कर दिया जाय ऐसी घिनौनी घटनाओं को घटित होने से नहीं रोका जा सकता.
चतुर्थ सवाल : क्या पुलिस और सुरक्षा प्रबंधन इस बात की गारंटी लेते हैं कि अब दिन के समय कोई महिला किसी दरिंदे की घृणित मानसिकता का शिकार नहीं होगी?

मेरे विचार : पुलिस और सुरक्षा प्रबंधन की बात छोडिये. मैं सारे प्रबंधन की बात करता हूँ. क्या कोई इस बात की गारंटी लेगा कि उसके तंत्र में अब दिन के समय कोई महिला किसी दरिंदे की घृणित मानसिकता का शिकार नहीं होगी? क्या आप इस बात की गारंटी लेते है, क्या हम इस बात की गारंटी लेते है कि मौका मिलने पर हमारे द्वारा कोई महिला हमारी गन्दी मानसिकता का शिकार नहीं होगी? यह सवाल मैं व्यक्ति विशेष पर नहीं बल्कि समाज की विचारधारा पर उठा रहा हूँ.

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